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________________ -१.२९९] प्रथमो विभागः [३७ देध्यं योजनपञ्चाशद्विस्तारस्तस्य चार्धकम्। सप्तत्रिशद्विभागश्च चैत्यस्योच्छ्य इष्यते ।। २९० ३७।३। चतुर्योजनविस्तारं द्वारमष्टोच्छ्यं पुनः । तनुद्वारे च तस्यार्धमाने क्रोशावगाढकम् ।। २९१ सौमनसेषुकारेषु मानुषोत्तरकुण्डले। वक्षारकुलशैलेषु रुचकाद्रौ च मञ्जुले ।। २९२ ॥ त्रिकम् अष्टौ दी| द्विविस्तारश्चत्वारि च समुच्छितः। गव्यूतिमवगाढश्च देवच्छन्दो मनोहरः ।। २९३ रत्नस्तम्भधृतश्चारुसूर्यादिमिथुनोज्ज्वलः । नानापक्षिमृगाणां च युग्मनित्यमलंकृतः ।। २९४ अष्टोत्तरशतं गर्भगृहाणि जिनमन्दिरे । तत्र स्फटिकरत्नोद्धपीठाणि रुचिराणि तु ॥२९५ अष्टोत्तरशतं तत्र पर्यङ्कासनमाश्रिताः । जिनार्चा' रत्नमय्यः स्युर्धनुःपञ्चशतोन्नताः ।। २९६ द्वात्रिशनागयक्षाणां मिथुनप्रतियातनाः। चामराङ्कितहस्ताः स्युः प्रत्येकं रत्ननिर्मिताः ।। २९७ सनत्कुमारसर्वाह्णयक्षयोः प्रतिबिम्बके । श्रीदेवीश्रुतदेव्योश्च प्रतिबिम्बे जिनपार्श्वयोः ।। २९८ भृङ्गारकलशादर्शा वीजनं ध्वजचामरे। सुप्रतिष्ठातपत्रं चेत्यष्टौ सन्मङ्गलान्यपि ।। २९९) सौमनस वन, इपुकार पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, कुण्डल गिरि, वक्षार पर्वत, कुलाचल और रमणीय रुचक पर्वत; इनके ऊपर स्थित जिनभवनको लंबाई पचास (५०) योजन, विस्तार उससे आधा (२५ योजन) तथा ऊंचाई सतीस योजन और एक योजनके द्वितीय भाग (३७३ यो.) प्रमाण मानी जाती है। [ प्रत्येक जिनभवनमें एक महाद्वार और दो क्षुद्रद्वार होते हैं ।] उसके महाद्वारका विस्तार चार (४) योजन और ऊंचाई आठ (८) योजन प्रमाण होती है । क्षुद्रद्वारोंका प्रमाण महाद्वारकी अपेक्षा आधा होता है। जिनभवनका अवगाढ (नीव) एक कोस मात्र होता है ।। २९०-९२ ॥ जिनभवनका मनोहर देवच्छंद आठ (८) योजन लंबा, दो (२) योजन विस्तीर्ण, चार (४) योजन ऊंचा तथा एक कोस अवगाहवाला होता है ।। २९३ ।। उक्त देवच्छंद रत्नमय खम्भोंके आश्रित, सुन्दर सूर्यादिके युगलोंसे उज्ज्वल, तथा अनेक पक्षियों एवं मृगोंके युगलोंसे नित्य ही अलंकृत होता है ॥ २९४ ।। जिनमन्दिरमें एक सौ आठ (१०८) गर्भगृह और उनमें स्फटिक एवं रत्नोंसे प्रशस्त रमणीय सिंहासन होते हैं ।। २९५ ।। वहां पर्यंक आसनके आश्रित अर्थात् पद्मासनसे स्थित और पांच सौ धनुष ऊंची एक सौ आठ (१०८) रत्नमयी जिनप्रतिमायें विराजमान होती हैं ।। २९६।। वहां हाथोंमें चामरोंको धारण करनेवाली व प्रत्येक रत्नोंसे निमित ऐसी बत्तीस नाग-यक्षोंके युगलोंकी मूर्तियां होती हैं ।। २९७ ॥ प्रत्येक जिनबिम्बके दोनों पार्श्वभागोंमें सनत्कुमार और सर्वाल यक्षोंके तथा श्रीदेवी और श्रुतदेवीके प्रतिबिम्ब होते हैं ।। २९८ ॥ शृंगार, कलश, दर्पण, वीजना, ध्वजा, चामर, सुप्रतिष्ठ और छत्र; ये आठ उत्तम मंगलद्रव्य हैं। रत्नोंसे उज्ज्वल वे पजिनार्ध्या । २ व प्रतिमातमाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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