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लोकविभागः
[ १.२८०
श्रीकान्ता श्रीयुता चन्द्रा ततः श्रीमहितेति च । श्रीपूर्वनिलया चंव ईशानस्यापरोत्तरे ।। २८० नलिनोत्तरपूर्वस्यां तथा नलिनगुल्मिका । कुमुदाथ कुमुदाभा चैवं सौमनसेऽपि च ।। २८१ चूलिकोत्तरपूर्वस्यां पाण्डुका विमला शिला । पाण्डुकम्बलनामा च रक्तान्या रक्तकम्बला ।। २८२ विदिक्षु क्रमशो हैमी राजती तापनीयिका । लोहिताक्षमयी चैता अर्धचन्द्रोपमाः शिलाः ।। २८३ अष्टच्छ्रयाः शतं दीर्घा रुन्द्रा पञ्चाशतं ' च ताः । शिले पाण्डुकरक्ताख्ये दीर्घे पूर्वापरेण च ॥ २८४ द्वे पाण्डुकम्बलाख्याच रक्तकम्बलसंज्ञिका । दक्षिणोत्तरदीर्घे ताश्चास्थिर स्थिर भूमुखाः ।। २८५ धनुःपञ्चशतं दीर्घं मूले तावच्च विस्तृतम् । अग्रे तदर्धविस्तारं एकशोऽत्रासनत्रयम् ।। २८६ शक्रस्य दक्षिणं तेषु वीशानस्योत्तरं स्मृतम् । मध्यमं जिनदेवानां तानि पूर्वमुखानि च ।। २८७ भारताः पाण्डुकायां तु रक्तायामौत्तरा जिनाः । पाण्डुकम्बलसंज्ञायां पश्चाद्वैदेहका जिनाः ॥ २८८ पूर्ववैदेहकाश्चापि रक्तकम्बलनामनि । इन्द्रबलियेऽभिषिच्यन्ते तेषु सिंहासनेषु तु ॥ २८९
पश्चिम (नैर्ऋत्य) कोण में अवस्थित हैं ॥ २७९ ॥ श्रीकान्ता श्रीचन्द्रा, श्रीमहिता और श्रीनिलया ये ईशान इन्द्रकी चार वापिकायें पश्चिम-उत्तर (वायव्य) दिशाभागमें स्थित हैं ॥ २८० ॥ नलिना, नलिनगुमिका, कुमुदा और कुमुदाभा ये चार वापिकायें उत्तर-पूर्वं ( ईशान) कोण में स्थित हैं । उसी प्रकार से ये वापिकायें सौमनस वन में भी अवस्थित हैं ।। २८१ ॥ चूलिका के उत्तर-पूर्व (ईशान) भाग में निर्मल पाण्डुका शिला स्थित है । पाण्डुकम्बला, रक्ता और रक्तकम्बला नामकी ये तीन शिलायें इसी क्रमसे विदिशाओं (आग्नेय, नैर्ऋत्य एवं वायव्य) में स्थित हैं । इनमें पाण्डुका शिला सुवर्णमय, पाण्डुकम्बला रजतमय, रक्ता तपनीयमय और रक्तकम्बला लोहिताक्षमयी है । ये सब शिलायें आकारमें अर्धचन्द्र के समान हैं ।। २८२-८३ ।। वे शिलायें आठ (८) योजन ऊंची, सौ (१००) योजन आयत और पचास ( ५० ) योजन विस्तृत हैं। इनमें पाण्डुका और रक्ता नामकी दो शिलायें पूर्व-पश्चिम आयत तथा पाण्डुकम्बला और रक्तकम्बला नामकी दो शिलायें दक्षिण-उत्तर आयत हैं । वे शिलायें अस्थिर भूमि और स्थिर मुखवाली हैं ।। २८४-८५ ॥ इनमेंसे प्रत्येक शिलाके ऊपर तीन तीन आसन स्थित हैं । इनकी दीर्घता (ऊंचाई) पांच सौ ( ५०० ) धनुष और मूलमें विस्तार भी उतना ( ५०० धनुष ) ही है । उपरिम विस्तार उनका इससे आधा ( २५० धनुष ) है || २८६ ॥ उनमें दक्षिण सिंहासन सौधर्म इन्द्रका, उत्तर ईशान इन्द्रका, और मध्यम जिनदेवों (तीर्थंकरों ) का है । वे आसन पूर्वमुख अवस्थित हैं ।। २८७ ।। पाण्डुका शिलाके ऊपर भरत क्षेत्रमें उत्पन्न हुए तीर्थकरोंका, रक्ता शिलाके ऊपर औत्तर अर्थात् ऐरावत क्षेत्रमें उत्पन्न तीर्थंकरोंका, पाण्डुकम्बला नामक शिलाके ऊपर अपरविदेहवर्ती तीर्थंकरोंका, तथा रक्तकम्बला नामक शिलाके ऊपर पूर्व विदेहवर्ती तीर्थंकरोंका अभिषेक बाल्यावस्थामें उन सिंहासनोंके ऊपर इन्द्रों द्वारा किया जाता है ।। २८८-८९ ।।
१ प पंचशतं ।
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