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________________ - १.२७९ ] प्रथमो विभागः पवणीसाण दिसासुं पासे सिंहासणस्स चुलसीदी। लक्खाणि वरपीढा' हवंति सामाणिय | ८४०००००। सुराणं ॥ १० तस्सग्गिदिसाभागे बारसलक्खाणि पढमपरिसाए । पीढाणि होंति कंचणरइदाणि रयणखचिदाई ॥ ११ । १२००००० । after दिसाविभागे मज्झिमपरिसामराण पीढाणि । रम्माई रायते ' चोदसलक्खप्यमाणाणि ॥ १२ । १४००००० । इरिदिदिसाविभाए बाहिरपरिसामराण पोढाणि । कंचणरयणमयाणि सोलसलक्खाणि । १६००००० । चिट्ठति ॥ १३ तत्थ य दिसाविभाए तेत्तीससुराण होंति तेत्तीसा । वरपीढाणि णिरंतर पुरंतमणिकिरणणियराणि ॥ १४ सिहासणस्स पच्छिमभागे चिट्ठेति सत्तपीढाणि । छक्कं महत्तराणं महत्तरीए हवे एक्कं ॥ १५ । ६ । १ । सिंहासनस चउवि दिसासु चिट्ठति अंगरक्खाणं । चउरासीदिसहस्सा पीढाणि विचित्तवाणि ॥ १६ सिहासम्म तस्सि पुण्वमुहे पदसिदूण' सोहम्मो । विविहविणोदेण जुदो पेच्छइ सेवागदे देवे ।। १७ मुङ्गा भृङ्गनिभा चान्या कज्जला कज्जलप्रभा । दक्षिणापरतस्त्वेताः पुष्करिण्यस्तथाविधाः ॥ २७९ । ८४००० । www [ ३५ चाहिये || ९ || मध्य सिंहासन के पासमें वायव्य और ईशान दिशाओंमें सामानिक देवोंके चौरासी लाख (८४००००० ) उत्तम आसन होते हैं ।। १० ।। उसके आग्नेय दिशाभागमें प्रथम परिषद् के सुवर्णसे रचित और रत्नोंसे खचित बारह लाख ( १२०००००) आसन होते हैं ।। ११ ।। उसके दक्षिण दिशा विभाग में मध्यम पारिषद देवोंके रमणीय चौदह लाख (१४०००००) प्रमाण आसन विराजमान हैं ।। १२ ।। नैर्ऋत्य दिशा विभागमें बाह्य पारिषद देवोंके सुवर्ण एवं रत्नमय सोलह लाख ( १६०००००) आसन स्थित हैं || १३ | उसी दिशाविभागमें त्रायस्त्रिश देवोंके निरंतर प्रकाशमान मणियोंके किरणसमूहसे व्याप्त तेतीस (३३) उत्तम आसन स्थित हैं ।। १४ ।। मध्य सिंहासन के पश्चिम दिशाभाग में सात (७) आसन अवस्थित हैं । इनमें छह (६) आसन तो छह सेनामहत्तरोंके और एक (१) महत्तरीका है ।। १५ ।। मध्य सिंहासनकी चारों ही दिशाओंमें अंगरक्षक देवोंके विचित्र रूपवाले चौरासी हजार ( ८४०००) आसन स्थित हैं ।। १६ ।। उस पूर्वाभिमुख सिंहासनपर बैठकर सौधर्म इन्द्र अनेक प्रकारके विनोदके साथ सेवामें आये हुए देवोंको देखता है ॥ १७ ॥ भृंगा, भृंगनिभा, कज्जला और कज्जलप्रभा ये उसी प्रकारकी चार वापिकायें दक्षिण Jain Education International १ आप पीडा । २ ति. प. कंचणरयणमयाणि । ३ आ 'सणविमि, प 'सणविपि । ३ आ प पुंमुहे वइ', ब पुम्मुहे वइ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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