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________________ ३४] लोकविभागः [ १.२७५पूर्वोत्तरस्यां तस्यव चापरोत्तरतस्तथा । सामानिकानां देवानां रम्यमद्रासनानि च ।। २७५ ४२०००। ४२००० । अष्टानामग्रदेवीनां पुरो भद्रासनानि च । आसन्नपरिषत्तस्य सासना पूर्वदक्षिणे ॥ २७६ ८ । १२००० । मध्यमा दक्षिणस्यां च बाह्या चापरदक्षिणे । त्रयस्त्रिशच्च तत्रैव पश्चात् सैन्यमहत्तराः ॥२७७ १४००० । १६००० । ३३ । चतसृष्यात्मरक्षाणां दिक्षु भद्रासनानि च । उपास्यमानस्तैरिन्द्र आस्ते पूर्वमुखः सुखम् ।। २७८ ८४००० । ८४०.०० । ८४०००। ८४००० । । उक्तं च त्रिलोकप्रज्ञप्तौ [४, १९५१-६१]-- सोहासणमइरम्म सोहम्मिदस्स भवणमज्झम्मि । तस्स य चउसु दिसासु चउपीढा लोयवालाणं॥७ सोहम्मिदासणदो दक्खिणभायम्मि कणयणिम्मिविदं । सिंहासणं विराजदि मणिगणखचिदं पडिदस्स।। सिंहासणस्स पुरदो अवाणं होंति अग्गमहिसीणं । बत्तीससहस्साणि वियाण' पवराइ पीढाई॥९ ८। ३२००० । चारों ओर लोकपाल देवोंके चार आसन स्थित हैं ।। २७४ ।। उसीकी पूर्वोत्तर (ईशान) दिशा तथा पश्चिमोत्तर (वायव्य) दिशामें सामानिक देवोंके रमणीय भद्रासन अवस्थित हैं - ईशानमें ४२०००, वायव्यमें ४२००० ॥ २७५ ॥ आठ (८) अग्र देवियोंके भद्रासन इन्द्रके आसनके सामने हैं। उसके पूर्व-दक्षिण (आग्नेय ) भागमें आसनसहित अभ्यन्तर परिषदके देव (१२०००) बैठते हैं ।।२७६।। उसकी दक्षिण दिशामें मध्यम परिषद् (१४०००) के तथा पश्चिम-दक्षिण (नैर्ऋत्य) कोण में बाह्य परिषद् (१६०००)के देव बैठते हैं, उसी दिशा भागमें त्रायस्त्रिंश (३३) देव विराजते हैं। सेनामहत्तर देव इन्द्रके सिंहासन के पीछे स्थित रहते हैं ।। २७७ ।। आत्मरक्ष देवोंके भद्रासन चारों दिशाओंमें ( पूर्व में ८४०००, दक्षिणमें ८४०००, पश्चिममें ८४०००, उत्तरमें ८४०००) स्थित होते हैं । उन सब देवोंसे सेवमान सौधर्म इन्द्र उपर्युक्त सिंहासनके ऊपर पूर्वाभिमुख होकर सुखपूर्वक स्थित रहता है ॥ २७८ ॥ त्रिलोकप्रज्ञप्ति में कहा भी है -- उस भवनके मध्यमें अतिशय रमणीय सौधर्म इन्द्रका सिंहासन स्थित है । उसकी चारों दिशाओंमें चार आसन लोकपाल देवोंके हैं ।। ७ ।। सौधर्म इन्द्रके आसनसे दक्षिण भागमें सुवर्णसे निर्मित और मणिसमूहसे खचित प्रतीन्द्रका सिंहासन विराजमान है ॥८॥ मध्य सिंहासनके आगे आठ (८) अग्र महिषियोंके बत्तीस हजार (३२०००) उत्तम आसन जानना १ प्रतिषु 'पियाण' । २ प्रतिषु 'पीडाई'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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