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________________ -१.२७४] प्रथमो विभागः [३३ मूले तूच्छ्यरुन्द्राणि मध्ये पञ्चघनाद्विना । पञ्चाशद् द्वे शते चाग्रे कूटमानानि तेष्विमाः ॥२६८ ।५०० । ३७५ । २५० । मेघंकरा मेघवती सुमेघा मेघमालनी । तोयंधरा विचित्रा च पुष्पमालाप्यनिन्दिता ॥ २६९ वापोत्युत्पलगुल्मा च नलिना चोत्पलेति च । उत्पलोज्ज्वलसंज्ञा च मेरोस्ताः पूर्वदक्षिणे ॥२७० मयूरहंसक्रौञ्चाद्यैर्यन्त्रनित्यमलंकृताः२ । मणितोरणसंयुक्ता रत्नसोपानपङक्तयः ।। २७१ तासां पञ्चाशदायामस्तदर्धमपि विस्तृतिः । दशावगाढः प्रासादस्तासां मध्ये शचीपतेः ॥ २७२ एकत्रिंशत्सगन्यूतिद्विषष्टिः सार्धयोजना । आयामविस्तृती तुङ्गस्तस्य गाधोऽर्धयोजनम् ॥ २७३ आ ३१ को १ । वि ३१ को १ । उ ६२ को २ । अ को २ । उक्तं च द्वयं त्रिलोकप्रज्ञप्तौ [४, १९४९-५० ]-- पोक्खरणोणं मज्झे सक्कस्स हवे विहारपासादो । पणघणकोसुत्तुंगो तद्दलरुंदो णिरुवमाणो ॥ ५ १२५ । ६२।३। एक्कं कोसं गाढो सो णिलवो विविहकेदुरमणिज्जो। तस्सायामपमाणे उवएसो णत्थि अम्हाणं ॥६ सिंहासनं तु तन्मध्ये शक्रस्यामिततेजसः । चत्वारि लोकपालानामासनानि चतुर्दिशम् ।। २७४ मूलमें ऊंचाई समान (५०० यो.), मध्य में पांचके घन अर्थात् एक सौ पच्चीस (५ ४५ x ५ = १२५) योजनोंके विना ऊंचाईके बराबर (५०० - १२५. = ३७५ यो.) तथा ऊपर दो सौ पचास (२५०) योजन प्रमाण है । उनके ऊपर ये देवियां रहती हैं-- मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तोयंधरा, विचित्रा, पुष्पमाला और अनिन्दिता ॥ २६६-२६९ ॥ वहां मेरुके पूर्व-दक्षिण (आग्नेय) भागमें उत्पल गुल्मा, नलिना, उत्पला और उत्पलोज्वला नामकी चार वापियां स्थित हैं ॥ २७० ।। वे मयुर, हंस और क्रौंच आदि यंत्रोंसे सदा सुशोभित; मणिमय तोरणोंसे संयुक्त, तथा रत्नमय सोपानों (मीढियों) की पंक्तियोंसे सहित हैं॥ २७१ ।। उनका आयाम पचास (५०) योजन, विस्तार इससे आधा (२५ यो.) और गहराई दस (१०) योजन प्रमाण है। उनके मध्यमें इन्द्र का भवन अवस्थित है ।। २७२ । इस प्रासादका आयाम और विस्तार एक कोस सहित इकतीस (३११) योजन, ऊंचाई साढ़े बासठ (६२३) योजन, और गहराई आधा योजन (२ कोस) मात्र है।। २७३ ।। त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें कहा भी है -- - वापियोंके मध्य में सौधर्म इन्द्रका विहारप्रासाद स्थित है। उस अनुपम प्रासादकी ऊंचाई पांचके घन अर्थात् एक सौ पच्चीस (५ x ५ x ५ = १२५) कोस और विस्तार इससे आधा (६२३ कोस) है ॥ ५ ॥ अनेक प्रकारकी ध्वजाओंसे रमणीय वह प्रासाद एक कोस गहरा है । उसके आयामके प्रमाण विषयक उपदेश हमें उपलब्ध नहीं है ॥ ६ ॥ उक्त प्रासादके मध्य में अपरिमित तेजके धारक सौधर्म इन्द्रका सिंहासन है । उसके १ब तोयंदरा । २५ कोंचाये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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