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________________ ३८] लोकविभागः. [१.३००अष्टोत्तरशतं तानि मङ्गलानि पृथक् पृथक् । रत्नोज्ज्वलानि राजन्ते प्रतिमोभयपार्श्वयोः ॥ ३० देवच्छन्दाग्रमेदिन्यां' मध्ये श्रीजनमन्दिरम् । द्वात्रिंशत्सहस्राणि कलशाः सौवर्णराजताः ॥ ३०१ पार्श्वयोश्च महाद्वारः प्रत्येक द्विहतानि च। षट्सहस्राणि राजन्ते घटानां धूपसंभृताम् ।। ३०२ महाद्वारस्य बाह्ये च पार्श्वयोरुभयोः पृथक् । चत्वारि च सहस्राणि लम्बन्ते रत्नमालिकाः ॥३०३ तद्रत्नमालिकामध्ये लम्बन्ते हेममालिकाः। त्रिहताष्टसहस्राणि मिलित्वा कान्तिभासुराः ।। ३०४ ।२४००० । कानकाः कलशा हेममालिका धूपसद्धटाः। द्विगुणाष्टसहस्राणि प्रत्येकं मुखमण्डपे ।। ३०५ मधुरझणझणारावा मुक्तारत्नविनिमिताः । सकिंकिणीकास्तन्मध्ये राजन्ते घण्टिकाचयाः ॥३०६ क्षुल्लकद्वारयोरग्रे मणिमालादिसर्वकम् । महाद्वारोक्तसर्वेषामर्धमानं प्रचक्षते ॥ ३०७ वसत्याः पृष्ठभागे च मणिमालाष्टसहस्रकम्। त्रिगुणाष्टसहस्राणि लम्बन्ते हेममालिकाः ।। ३०८ अस्त्यग्रे जिनवासस्य मञ्जुलो मुखमण्डपः । ध्वजादिभिश्च संयुक्तस्तस्मात्प्रेक्षणमण्डपः ॥ ३०९ मंगलद्रव्य प्रतिमाओंके उभय पार्श्वभागोंमें पृथक् पृथक् एक सौ आठ (१०८) विराजमान होते हैं ॥ २९९-३००॥ जिनमंदिरके मध्य में देवच्छंदकी अग्रभूमि (वसति) में सुवर्णमय व रजतमय बत्तीस हजार (३२०००) घट होते हैं ॥३०१ ।। प्रत्येक महाद्वारके दोनों पार्श्वभागोंमें दोसे गुणित छह हजार अर्थात् बारह हजार (१२०००) धूपसे परिपूर्ण घट (धूपघट) विराजमान होते हैं ।। ३०२ ।। महाद्वारके बाहिर दोनो पार्श्वभागोंमें पृथक् पृथक् चार चार हजार रत्नमालायें लटकती रहती हैं ॥ ३०३ ।। उन रत्नमालाओंके बीच में कान्तिसे देदीप्यमान सब मिलकर तीनसे गुणित आठ हजार अर्थात् चौबीस हजार (२४०००) सुवर्णमालायें लटकती रहती हैं ॥३०४ ।। मुखमण्डपमें सुवर्णमय कलश, हेममाला और धूपघट इनमेंसे प्रत्येक द्विगुणित आठ हजार अर्थात् सोलह हजार (१६०००) होते हैं ।।३०५।। मुखमण्डपके मध्य में मधुर झनझन ध्वनिसे संयुक्त, मोती व रत्नोंसे निर्मित और क्षुद्र घंटियोंसे सहित ऐसे घंटाओंके समूह विराजमान होते हैं। ३०६ ।। क्षुद्रद्वारोंके आगे स्थित उपर्युक्त मणिमाला आदिका प्रमाण महाद्वारके विषय में कही गई उन सबसे आधा आधा कहा जाता है ।। ३०७ ।। वसतीके पृष्ठ भागमें आठ हजार (८०००) मणिमालायें और तीनसे गुणित आठ हजार अर्थात् चौबीस हजार (२४०००) सुवर्णमालायें लटकती होती हैं ।। ३०८॥ जिनालयके आगे ध्वजा आदिकोंसे संयुक्त रमणीय मुखमण्डप तथा उसके आगे १५ देवा छंदाग्रमेदिन्या । पराजिताः । ३ प द्विहितानि । ४ ५ युषतारत्न । ५ आप मंटपः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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