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________________ - १.२५९] प्रथमो विभागः [ ३१ मेर्वज्रमयो मले' सहस्रं योजनानि सः । एकषष्टिसहस्राणि सर्वरत्नमयस्ततः ।। २५१ अष्टत्रिशत्सहस्राणि ततो हेममयोऽपि च । भवेदिति विनिदिष्टं परमागमकोविदः ।। २५२ माणा[ना]ख्यं चारणाख्यं च गन्धर्व भवनं तथा। चित्राख्यं भवनं चैव नन्दने दिक्चतुष्टये।।२५३ त्रिंशद्योजन विस्तारः पुनः पञ्चाशदुच्छ्यः । नवतिश्च परिक्षेपो वृत्तस्य भवनस्य च ।। २५४ प्रथमे भवने सोमो यमश्चारणसंज्ञके । गन्धर्वे वरुणो देवः कुबेर श्चित्रनामके ।। २५५ देव्यः कोटित्रयं सार्धमेकैकस्य समीपगाः । लोकपाला इमे ताभिः रमन्ते दिक्षु सर्वदा ।। २५६ वज्र वज्रप्रभं नाम्नो सुवर्णाख्यं च तत्प्रभम् । वने सौमनसे सन्ति भवनान्येतानि पूर्वतः ।। २५७ मानं नन्दनसंस्थानादधं च तदिहे यते । लोकपाला इमे चात्र तावतीपरिवारिताः ॥ २५८ । वि १५ उ २५ प ४५ । लोहितं चाञ्जनं तेषां हारिद्रमथ पाण्डुरम् । पाण्डु के चार्धमानानि तावत्कन्यानि लक्षयेत्।।२५९ । वि ७६ ३ । उ १२।३।२२।। वह मेरु पर्वत मूल भाग (नीव) में एक हजार (१०००) योजन वजमय, उसके ऊपर इकसठ हजार (६१०००) योजन सर्वरत्नमय, तथा उसके ऊपर अड़तीस हजार (३८०००) योजन सुवर्णमय है; ऐसा परमागमके पारगामियों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है-- १००० + ६१०००+३८००० = १००००० यो. ॥ २५१-५२॥ नन्दन वनके भीतर चारों दिशाओं में मान, चारण, गन्धर्व और चित्र नामकः चार भवन स्थित हैं । २५३ ।। इन गोलाकार भवनों से प्रत्येकका विस्तार तीस योजन, ऊंचाई पचास योजन और परिधि (स्थूल) नब्बै योजन प्रमाण है ।। २५४ ॥ इनमेंसे प्रथम भवनमें सोम, दूसरे चारण नामक भवन में यम, गन्धर्व भवन में वरुण देव और चित्र नामक भवनमें कुबेर लोकपाल रहता है ।। २५५ ।। इनमें से एक एकके समीपमें रहने वाली साढ़े तीन करोड़ (३५००००००) देवियां होती हैं । पूर्वादिक दिशाओंमें स्थित ये लोकपाल उनके साथ सर्वदा रमण करते हैं ।। २५६ ।। वज्र, वज्रप्रभ, सुवर्ण और सुवर्णप्रभ नामक ये चार भवन पूर्वादिक क्रमसे सौमनस वनमें विद्यमान हैं ।।२५७।। नंदन वन में स्थित भवनोंकी अपेक्षा इन भवनोंका प्रमाण आधा (विस्तार १५ यो., ऊंचाई २५ यो., परिधि ४५ यो.) माना जाता है । यहां भी ये लोकपाल उतनी ही देवियोंसे परिवेष्टित रहते हैं ।। २५८ ।। लोहित, अंजन, हारिद्र और पाण्डुर ये चार भवन पाण्डुक वन में स्थित हैं। उनका प्रमाण सौमनस वनके भवनोंकी अपेक्षा आधा है- विस्तार ७३, ऊंचाई १२३, परिघि २२३ यो. । देवकन्यायें उतनी ही जानना चाहिये ॥ २५९ ॥ १पर्मूले । २ आ ब चैवं । ३ आ प तावंतीपरिवारिताः । ४ आ हरिद्रमथ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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