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________________ ३०] लोकविभागः [१.२४३ - एकादशप्रदेशेषु एकस्मान्मूलतो भवेत् । हानिरहुगुलकिटकाद्यादेवं स्यादिति निश्चितम् ।। २४३ प्रथमो हरितालश्च ततो वैडूर्यसंनिभः । सर्वरत्नमयश्चान्य ऊध्वं वज्रमयस्ततः ।। २४४ परिधिः पद्मवर्णश्च षष्ठो लोहितवर्णकः । मेरोरिमे परिक्षेपभेदा भूम्या भवन्ति ते ।। २४५ षोडशव सहस्राणि सहस्रार्ध च विस्तृताः । प्रत्येक षट्परिक्षेपाः सप्तमः पादयः स्मृतः ।। २४६ सप्तमस्य परिक्षेपभेदा एकादशोदिताः । भद्रसालवनं चान्यमानुपोजरकं वनम् ।। २४७ देवानामथ नागानां भूतानां रमणानि च । वनान्येतानि पञ्च स्युर्भद्रसालवने स्फुटम् ॥ २४८ नन्दनं च वनं चोपनन्दनं नन्दने वने । सौमनसवनं चोपसौमनसमिति द्वयम् ॥ २४९ ।। सौमनसवने स्याच्च पाण्डुकं चोपपाण्डुकम् । पाण्डकाख्यवने स्यातामिति बाह्याद् भवन्ति ते॥२५० उदाहरण- चूलिकाका भूविस्तार १२ यो., मुखविस्तार ४ यो. और ऊंचाई ४० यो. है । अत एव १२.४ = 4 यो., यह हानि-वृद्धिका प्रमाण हुआ। अब यदि हम २० योजनकी ऊंचाई पर चूलिकाके विस्तारको जानना चाहते हैं तो वह इस प्रकार प्राप्त हो जाता है--१४२० = २६ = ४ यो., इसे भूमि में से कम कर देनेपर १२ - ४ = . यो. प्राप्त होते हैं । यही २० यो. की ऊंचाईपर चलिकाका विस्तारप्रमाण है। चुकि यह विस्तार चलिकाके मध्यका है अत एव ऊपरकी ओरसे नीचाई भी २० यो. ही होती है । इसलिये वृद्धिका प्रमाण भी पूर्वोक्त ४ यो. ही रहेगा। इसे मुख में मिला देनेसे भी वही प्रमाण प्राप्त होता है -- ४+४=८ यो । यहां विस्तारमें मूलतः एक प्रदेशसे लेकर ग्यारह प्रदेशोंपर एक प्रदेशकी हानि हुई है । इसी प्रकारसे मूलतः ग्यारह अंगुलोंपर एक अंगुलकी तथा ग्यारह किप्कुओंपर एक किष्कु आदिकी भी हानि होती गई है, यह निश्चित है ।। २४३ ।। मेरु पर्वतकी छह परिधियोंमें से प्रथम परिधि हरितालमयी, दुसरी वड्र्यमणि जंसी, तीसरी सर्वरत्नमयी, चौथी वज़मयी, पांचवीं पद्मवर्ण और छठी लोहितवर्ण है। मेरुके जो ये परिधिभेद हैं वे भूमिसे होते हैं ।। २४४-२४५ ।। इन छह परिधियोंमें प्रत्येक परिधिका विस्तार मोलह हजार और एक हजारके आधे योजन अर्थात् साढ़े सोलह हजार (१६५००) योजन प्रमाण है । सातवीं परिधि वृक्षोंसे की गई है ।। २४६ ॥ सातवीं परिधिके ग्यारह भेद कहे गये हैं - १ भद्रसाल वन २ मानुषोत्तर वन ३ देवरमण ४ नागरमण और ५ भूतरमण, ये पांच वन स्पष्टतया भद्रसाल वन में हैं। ६ नन्दनवन और ७ उपनन्दन वन ये दो वन नन्दन वन में हैं । ८ सौमनस वन और ९ उपसौमनस वन ये दो वन सौमनस वनमें हैं । तथा १० पाण्डुक और ११ उपपाण्डुक बन ये दो वन पाण्डुक नामक वन में हैं। वे सब बाह्य भागसे हैं ।। २४७-२५० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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