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- १.२४२] प्रथमो विभागः
[२९ सप्तत्रिंशत् परिक्षेपोमध्ये पञ्चकृतिस्तया। साधिका द्वादशाग्रे च चूलिकाया विदुर्बुधाः ।। २३८
। २५ ।। एकादशसहस्राणि समरुन्द्रः सुदर्शनः । नन्दनाख्यावनादूवं' तथा सौमनसादपि ।। २३९ मुखभूम्योविशेषस्तु पुनरुत्सेधभाजितः। भूमुखाभ्यां क्रमाद्धानिश्चयश्च भवति ध्रुवम् ।। २४० एकेनैकादशांशेन गुणितेष्टे मुखे युते । भूम्यां वा शोधिते २ व्यासो मेरोरिष्टप्रदेशके ।। २४१ एकेन पञ्चमांशेन गुणितेष्टे मुखे युते । भम्यां शोधिते व्यासो चूलिकेष्टप्रदेशके ।। २४२
बारह, मध्य में आठ और ऊपर चार योजन विस्तृत है । ऊंचाई उसकी चालीस योजन मात्र है ॥ २३७ ॥ विद्वानोंके द्वारा उस चूलिकाकी परिधिका प्रमाण पाण्डुक वनके समीपमें सैंतीस (३७) योजन, मध्य में पांचके वर्ग प्रमाण अर्थात् पच्चीस (५ x ५ = २५) योजन और ऊपर बारह (१२) योजनसे कुछ अधिक बतलाया गया है ।। २३८ ।। यह सुदर्शन मेरु नन्दन वनसे तथा सौमनस वनसे भी ऊपर ग्यारह हजार (११००० योजनप्रमाण समान विस्तारवाला है ॥ २३९ ।।
भूमिमें से मुखको कम करके शेषको ऊंचाईसे भाजित करनेपर जो लब्ध हो वह निश्चय से भूमिकी ओरसे हानिका तथा मुखकी ओरसे वृद्धिका प्रमाण होता है ।। २४० ।। एक बटे ग्यारह (1) से अभीष्ट ऊंचाईके प्रमाणको गुणित करने पर जो प्राप्त हो उसे मुख में मिला देने अथवा भूमिमेंसे कम करनेपर इष्ट स्थान में मेरुका विस्तार जाना जाता है ॥२४१।।
उदाहरण- भूमि १०००० यो., मुख १००० यो., ऊंचाई ९९००० यो. । अत एव २००९९..:००° =, यो.; यह हानि-वृद्धि का प्रमाण हुआ । अब यदि हम उदाहरणस्वरूप सोमनस वनके समीपमें मेरुके विस्तारको जानना चाहते हैं तो वह उपर्युक्त विधान के अनुसार इस प्रकार प्राप्त हो जाता है- भूमिसे सौमनस वनकी ऊंचाई ५०० +६२५०० = ६३००० योजन है । अत एव पूर्व विधिके अनुसार हानिका प्रमाण जो प्राप्त हुआ है उसको इस ऊंचाईके प्रमाणसे गुणित करनेपर x ६३००० = ६३००° = ५७२७,३. यो. प्राप्त होते हैं। इनको भूमिके प्रमाणमेंसे कम कर देनेपर सौमनस वनके समीप मेरुका विस्तार प्राप्त हो जाता है । यथा- १०००० - ५७२७५ = ४२७२ यो. । इस प्रमाणको यदि मुखकी ओरसे लाना चाहते हैं तो वह इस प्रकारसे प्राप्त होगा- ऊपरकी ओरसे सौमनस वन ३६००० यो. नीचा है । अत एव वृद्धिका प्रमाण' x ३६००० = ३६०००=३२७२१ यो. हुआ। इसको मुखमें मिला देनेसे भी वही प्रमाण प्राप्त होता है । यथा- १०००+३२७२६० = ४२७२६० यो.।
एक पंचमांशसे चूलिकाकी अभीष्ट ऊंचाईको गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उसको मुखमें मिला देने अथवा भूमिमें से कम कर देनेपर अभीष्ट स्थानमें चूलिकाके विस्तारका प्रमाण प्राप्त होता है ।। २४२॥
१५ ०ख्यावनादूचं । २ ५ ०नेका० । ३ व शोदिते ।
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