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२८] लोकविभाग:
[१.२३० - द्विष्टि च सहस्राणां गत्वा पञ्चशतं तथा । वनं सौमनसं नाम नन्दनेन समं भवेत् ॥ २३० चत्वार्यत्र सहस्राणि शते द्वे च द्विसप्ततिः। अष्टावेकादशांशाश्च' विस्तारोबाहिरो' गिरेः ॥२३१
। ४२७२।१] त्रयोदश सहस्राणि शतानामपि पञ्चकम । एकादश ततः षट् च भागाः परिधिरस्य च ।। २३२
[१३५११। । तद्वाह्यगिरिविष्कम्भः सहस्रेण विजितः । अभ्यन्तरः स एव स्यादिति संख्याविदां मतः ॥२३३
।३२७२। । त्रिशत्येकोनपञ्चाशत् सहस्राणि दर्शव च । त्रय एकादशांशाश्च परिक्षेपोऽल्पहीनकाः ।। २३४
षत्रिशतं सहस्राणां गत्वातः पाण्डुकं वनम् । मेरोर्मूर्धनि विस्तीर्ण सहस्राधं षड्नकम् ।। २३५ शतं त्रीणि सहस्राणि द्विषष्टिर्योजनानि च । परिक्षेपोऽस्य विज्ञेयो मध्नि वैडूर्यचलिका ।। २३६ द्वादशाष्टौ च चत्वारि मूलमध्याग्रविस्तृता । चत्वारिंशतमुद्विद्धा गिरिराजस्य चूलिका ।। २३७
__ नन्दन वनसे बासठ हजार पांच सौ (६२५००) योजन ऊपर जाकर सौमनस नामक वन स्थित है जो विस्तारमें नन्दन वनके ही समान है ॥२३० ।। यहां मेरु पर्वतका बाह्य विस्तार चार हजार दो सौ बहत्तर योजन और एक योजनके ग्यारह भागोंमेंसे आठ भाग (४२७२,६) प्रमाण है ॥ २३१ ।। इसकी परिधि तेरह हजार पांच सौ ग्यारह योजन और एक योजनके ग्यारह भागों में से छह भाग (१३५११६६) प्रमाण है ।। २३२ ।। यहां मेरु पर्वतका जो बाह्य विस्तार है वही एक हजार योजनों (५०० x २) से कम होकर उसका अभ्यन्तर विस्तार होता है - ४२७२४- १००० = ३२७२६४ यो. ॥२३३।। इसकी परिधिका प्रमाण दस हजार तीन सौ उनचास योजन और एक योजनके ग्यारह भागोंमेंसे तीन भाग (१०३४९,३) प्रमाण है ।। २३४ ॥
इस सौमनस वनसे छत्तीस हजार (३६०००) योजन ऊपर जाकर मेरुके शिखरपर पाण्डुक वन स्थित है। इसका विस्तार एक हजारके आधे अर्थात् पांच सौ योजनमें छह योजन कम (४९४) है ।। २३५ ।।
विशेषार्थ-- पाण्डुक वनके समीपमें मेरुका विस्तार एक हजार योजन प्रमाण है। उसके ठीक मध्य में मेरु पर्वतकी चूलिका स्थित है । उसका विस्तार बारह योजन है। अत एव मेरु पर्वतके उक्त विस्तारमेंसे बारह योजन कम करके शेषमें दोका भाग देनेपर पाण्डुक वनका उक्त विस्तार होता है । यथा - (१००१२) = ४९४ यो.= (५०० - ६)।
इसकी परिधिका प्रमाण तीन हजार एक सौ बासठ योजन जानना चाहिये। इसके मस्तकपर वैडूर्यमणिमय चूलिका अवस्थित है ।। २३६ ।। यह मेरु गिरीन्द्रकी चूलिका मूल में
१ आ प दशांश्च । २ व बहितो । ३ प शत्मु।
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