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[२७
- १.२२९]
प्रथमो विभाग: नव चात्र सहस्राणि युतानि नवभिः शतैः । चतुष्कं च शतस्याधं भागा षट्कं च विस्तृतम्।।२२६
एकत्रिशसहस्राणि पुनश्चात्र चतुःशतम् । एकोनाशीतिसंयुक्तं परिधिर्वाह्यको गिरेः ॥ २२७ पूर्व एव सहस्रोनो विष्कम्भोऽभ्यन्तरो भवेत् । वने च नन्दने मेरोः परिक्षेपमतः शृणु ।। २२८
। ८९५४ । । विशतिश्च पुनश्चाष्टौ सहस्राणि शतत्रयम् । षोडशाग्रं पुनविन्ध्या[द्या]दष्टावेकादशांशकाः॥ २२९
२८३१६ । ।
उसका विस्तार पांच सौ योजन (५००) प्रमाण है । वह मंदर पर्वतके चारों ओर अवस्थित है ।। २२५ ।। यहां मेरुका विस्तार नौ हजार नौ सौ चौवन (मौ के आधे पचास और चार १३ + ४) योजन और छह भाग (९९५४१) प्रमाण है ।। २२६ ।।
विशेषार्थ---- मेरुका विस्तार भूमिके ऊपर भद्रशाल वन में १०००० यो. प्रमाण है। यही विस्तार ९९० ० ० योजन ऊपर जाकर क्रमशः हीन होता आ १००० यो. मात्र रह गया है । अतएव भूमिमेंसे मुखको कम करके शेषको ऊंवाईसे भाजित करनेपर हानि-वृद्धिका प्रमाण होता है इस नियम के अनुसार यहां हानि-वृद्धिका प्रमाण इस प्रकार प्राप्त होता है-- भूमि १०००० - मुख १००० = ९००० ; ऊंचाई ९९०००; ९०००-९९००० = यो. । इतनी मेरुके विस्तार में एक एक योजनकी ऊंचाईपर भूमिकी ओरसे हानि और मुखकी ओरसे वृद्धि होती गई है । अब नन्दन वन चूंकि ५०० यो. की ऊंचाईपर स्थित है अत एव यहां हानिका प्रमाण
४५०० =५० = ४५, यो. होगा। इसको भूमि विस्तारमेंसे घटा देनेपर उपर्युक्त विस्तारप्रमाण प्राप्त हो जाता है। जैसे-- १०००० - ४५३ = ९९५४६६ यो. । यही विस्तारप्रमाण मुखकी ओरसे इस प्रकार प्राप्त होगा- ऊपरकी ओर से नन्दन वन चूंकि ९८५०० यो. नीचे आकर स्थित है, अतः विस्तार वृद्धि का प्रमाण ९८५०० = ८९५४, यो. होगा । इसे मुखमें जोड़ देनेसे भी वही विस्तारप्रमाण प्राप्त होता है। यथा -- १००० --- ८९५४ == ९९५४.६ यो.। इसी नियमके अनुसार अन्यत्र भी अभीप्सित स्थानमें उसका विस्तारप्रमाण जाना जा सकता है।
यहां नन्दन वनके समीप मेरुकी बाह्य (नन्दन वनके विस्तारसहित) परिधिका प्रमाण इकतीस हजार चार सौ उन्यासी (३१४७९) योजन प्रमाण है ।। २२७ ॥ नन्दन वनके भीतर मेरुका अभ्यन्तर विस्तार एक हजार (५०० x २) योजनोंसे रहित पूर्व (९९५४,१) विस्तारके बराबर है-- ९९५४६ - १००० = ८९५४ यो. । अब आगे नन्दन वनके भीतर मेरुकी अभ्यन्तर परिधिका कथन करते हैं, उसे सुनिये ॥ २२८ ॥ वह बीस और आठ अर्थात् अट्ठाईस हजार तीन सौ सोलह योजन और एक योजनके ग्यारह भागोंमेंसे आठ भाग (२८३१६१) प्रमाण जानना चाहिये ॥ २२९ ॥
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