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________________ २०] लोकविभागः [ १.१६७त्रिंशत्सहस्राण्यायामो द्वे शते नवसंयुते । षट्कलाश्च समाख्याताश्चतुर्णामपि मानतः ।। १६७ __३०२०९ । ६६ । सिद्धायतनकूटं च गन्धमादन-कौरवे । गन्धमालिनिकूटं च लोहिताक्षमतः परम् ।। १६८ स्फटिकानन्दकूटे च मेरोः प्रभृति तानि तु । अवगाहनतुल्यः स्यात्कूटोच्छायो ऽन्त्ययोर्द्वयोः ।।१६९ सिद्धं च माल्यवन्नाम्ना कूटं चोतरकौरवम् । कच्छं सागरकं चैव रजनं पूर्णभद्रकम् ॥ १७० सीता हरिसहं चेति माल्यवत्स्वपि लक्षयेत् । उक्त एवोच्छ्यो ऽत्रापि नवस्वपि विभागतः ।।१७१ सिद्धं सौमनसं कूटं देवकुर्वास्यमुत्तमम् । मङ्गलं विमलं चातः काञ्चनं च वशिष्टकम् ।। १७२ सिद्धं विद्युत्प्रभ कूटं देवकौरवपयकम् । तपनं स्वस्तिकं चैव शतज्वलमतः परम् ॥ १७३ पर्वतोंका विस्तार पांच सौ (५००) योजन मात्र है ।।१६६।। इन चारों ही पर्वतोंकी लंबाईका प्रमाण तीस हजार दो सौ नौ य जन और छह कला (३०२०५६६) प्रमाण कहा गया है ।। १६७ ।। सिद्धायतनकूट, गन्धमादन, कुरु (उत्तरकुरु), गन्धमालिनी, लोहिताक्ष, स्फटिक और आनन्दकूट; ये सात कूट मेरु पर्वतसे लेकर गन्धमादन गजदन्त पर्वतके ऊपर स्थित हैं । इनमें प्रथम और अन्तिम इन दो कूटोंकी ऊंचाईका प्रमाण दोनों ओरके अन्तिम अवगाह (१००, १२५) के बराबर है ॥ १६८-१६९ ।। विशेषार्थ-- गजदन्त पर्वतोंकी ऊंचाई मेरु पर्वतके पास में ५०० योजन है । आगे वह क्रमसे हीन होती हुई निषध एवं नील पर्वतके समीपमें ४०० यो. मात्र रह गई है । इस ऊंचाईके अनुसार ही इनके ऊपर स्थित उन कूटोंकी भी ऊंचाई है । तदनुसार प्रथम कूटकी ऊंचाई १२५ यो. (पर्वतकी ऊंचाईके चतुर्थ भाग प्रमाण) और अन्तिम कुटकी ऊंचाई १०० यो. मात्र है । बीचके कूटोंकी ऊंचाई हीनाधिक है। उसके जाननेके लिये यह रीति काममें लायी जाती है- पर्वतके दोनों ओरकी अन्तिम ऊंचाईके प्रमाणको परस्पर घटानेपर जो शेष रहे उसमें एक कम गच्छ (९ व ७) का भाग दे । इस प्रकारसे जो लब्ध हो वह हानिके चयका माण होता है । इसको एक कम अभीष्ट कूटकी संख्यासे गुणित करके प्राप्त राशिको मुखमें प्रमिला देनेपर विवक्षित कुटकी ऊंचाई का प्रमाण होता है। जैसे आठवें कूट की ऊंचाईका प्रमाण(१२५-१००) (९-१) = ३३ हानिचय : १४ (८-१) + १०० = १२१२ योजन । सिद्ध, माल्यवान्, उत्तरकुरु, कच्छ, सागर, रजत, पूर्णभद्र, सीता और हरिसह कूट; ये नौ कूट माल्यवान् गजदन्त पर्वतके ऊपर स्थित जानना चाहिये । इन नो कूटोंकी ऊंचाईका विभाग पूर्वोक्त क्रमसे यहां भी जानना चाहिये ।। १७०-१७१ ।। सिद्ध, सौमनस, देवकुरु, मंगल, विमल, कांचन और अवशिष्ट ; ये सात क्ट सौमनस ग जदन्तके ऊपर अवस्थित हैं ।।१७२।। सिद्ध, विद्युत्प्रभ, देवकुरु, पद्म, तपन, स्वस्तिक, शतज्वल, सीतोदाकूट और हरिसम नामक कूट; १ आ प विशिष्ठकम् ।. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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