________________
-१.१६६] प्रथमो विभाग :
[ १९ वहदो गंतूणग्गे सहस्सदुग णउदि दोणि बे य कला । णदिदारजुदा वेदी दक्खिणउत्तरगभ६सालस्स॥२
।२०९२ । पुव्वावरभागेसुं सा गयदंताचलाण संलग्गा । इगिजोयणमुत्तुंगा जोयणअद्धस्स वित्थारा ॥ ३ ॥ सीताया उत्तरे तोरे कूटं पद्मोत्तरं मतम् । दक्षिणं नीलवत्कूटं पुरस्तान्मेरुपर्वतात् ।। १५८ सीतोदापूर्वतीरस्थं स्वस्तिकं कूटमिष्यते । नाम्नाञ्जनगिरिः पश्चान्मेरोदक्षिणतश्च ते ।। १५९ कुमुदं दक्षिणे तीरे पलाशं पुनरुत्तरे । सीतोदाया महानद्या अपरस्यां तु मेरुतः ।। १६० पश्चात्पुनश्च सीताया वतंसं कूटमिष्यते । पुरस्ताद्रोचनं नाम मेरोरुत्तरतो द्वयम् ।। १६१ भद्रसालवने तानि सममानानि काञ्चनैः । दिशागजेन्द्रनामानो देवास्तेषु वसन्ति च ।। १६२ अपरोत्तरतो मेरोः काञ्चनो गन्धमादनः । तस्मात्पूर्वोत्तरस्यां च वैडूर्यो माल्यवान् गिरिः ।। १६३ पूर्वदक्षिणतो मेरोः सौमनस्यो हि राजतः । विद्युत्प्रभस्तापनीयो दक्षिणापरतस्ततः ।। १६४ चतुःशतोच्छ्या नीले निषधे च समागमे । एते पञ्चशतोच्छाया मेरुमाश्रित्य पर्वताः ॥ १६५
।४०० । ५०० । उच्छयस्य चतुर्भागमुभयान्तेऽवगाहनम् । ते पञ्चशतविस्तारा देवोत्तरकुरुश्रिताः ॥ १६६
द्रहोंके आगे दो हजार बानबै (२०९२) योजन और दो कला जाकर नदीद्वारसे संयुक्त दक्षिण-उत्तर भद्रशाल वनकी वेदी अवस्थित है ॥ २ ।। पूर्व-पश्चिम भागोंमें गजदंत पर्वतोंसे लगी हुई वह वेदी एक योजन ऊंची और आध योजन विस्तृत है ॥ ३ ॥
सीता नदीके उत्तर किनारेपर पद्मोत्तर कूट (पद्मकूट) और उसके दक्षिण किनारेपर नीलवान् कूट स्थित है । ये दोनों कूट मेरु पर्वतके पूर्व में स्थित हैं ।। १५८ ॥ सीतोदा नदीके पूर्व तटपर स्थित स्वस्तिक कूट माना जाता है। अंजन नामक पर्वत उसके पश्चिम तटपर स्थित है । ये दोनों दिग्गज पर्वत मेरु पर्वतके दक्षिण में हैं ।।१५९॥ सीतोदा महानदीके दक्षिण तटपर कुमुद और उसके उत्तर तटपर पलाश पर्वत है। ये दोनों पर्वत मेरुके पश्चिममें हैं।॥१६॥ सीता नदीके पश्चिम तटपर अवतंस कट और उसके पूर्व तटपर रोचन नामक कूट स्थित है। ये दोनों कूट मेरुके उत्तर में हैं ।। १६१ ।। भद्रशाल वनमें स्थित उन पर्वतोंके विस्तार आदिका प्रमाण कांचन पर्वतोंके समान है । उनके ऊपर दिग्गजेन्द्र नामक देव निवास करते हैं। १६२॥
मेरु पर्वतके पश्चिम-उत्तर (वायव्य) कोणमें सुवर्णमय गन्धमादन पर्वत तथा उसके पूर्वोत्तर (ईशान) कोण में वैडूर्यमणिमय माल्यवान् पर्वत अवस्थित है ॥ १६३ ॥ मेरुके पूर्वदक्षिण (आग्नेय) कोणमें रजतमय सौमनस्य पर्वत तथा उसके दक्षिण-पश्चिम (नैर्ऋत्य) कोणमें सुवर्णमय विद्युत्प्रभ पर्वत स्थित है ।। १६४ ॥ ये पर्वत जहां निषध और नील पर्वतसे संबद्ध हैं वहां उनकी ऊंचाई चार सौ (४००) योजन है। किन्तु मेरुके पासमें उनकी यह ऊंचाई क्रमशः वृद्धिंगत होकर पांच सौ (५००) योजन प्रमाण हो गई है ॥ १६५ ।। उनका अवगाह दोनों ओर ऊंचाईके चतुर्थ भाग प्रमाण है। देवकुरु और उत्तरकुरुके आश्रित इन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org