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________________ १८] लोकविभाग: [१.१५१निषधादुत्तरस्यां च नद्यां तु' निषधो ह्रदः । कुरुनामा च सूर्यश्च सुलसो विद्युदेव च ।। १५१ रत्नचित्रतटा वज्रमूलाश्च विपुला ह्रदाः । वसन्ति तेषु नागानां कुमार्यः पनवेश्मसु ।। १५२ अर्धयोजनमुद्विद्धं योजनोच्छ्यविस्तृतम् । पद्मं गव्यूतिविपुला कणिका तावदुच्छ्रिता ।। १५३ चत्वारिंशच्छतं चैव सहस्राणामुदाहृतम् । शतं पञ्चदशाग्नं च परिवारोऽम्बुजस्य सः ।। १५४ । १४०११५ । तटद्वये ह्रदानां च प्रत्येकं दशसंख्यकाः । काञ्चनाख्याचलाः सन्ति ते हृदाभिमुखस्थिताः ।। १५५ उक्तं च - [ति. प. ४ - २०४९] एक्केक्कस्स दहस्स य पुत्वदिसाये य अवरदिन्भागे। दह दह कंचणसेला जोयणसयमेत्तउच्छेहा ॥१ शतं मूलेषु विपुला मध्ये पञ्चकृतेविना । स्वग्रे पञ्चाशतं रन्द्राः शतोच्छायाश्च ते समाः ।।१५६ । [१००] । ७५ । ५० । १०० । आक्रीडावासकेष्वेषां शिखरेषु शुकप्रभाः । देवा काञ्चनका नाम वसन्ति मुदिताः सदा ॥ १५७ उक्तं च - [ त्रि. सा. ६६०; ति. प. ४-२१२८ ] योजनका अन्तर है ।। १४९-१५० ॥ निषध पर्वतके उत्तरमें सीतोदा नदीके मध्य में निषध, कुरु, सूर्य, सुलस और विद्युत् नामके पांच द्रह हैं ॥ १५१ ॥ इन विशाल द्रहोंके तट रत्नोंसे विचित्र हैं । मूल भाग इनका वज्रमय है । उनके भीतर पद्मभवनोंमें नागकुमारियां रहती हैं ॥ १५२ ॥ जलसे पद्मकी ऊंचाई आधा योजन है । वह एक योजन ऊंचा और उतना ही विस्तृत है । उसकी कणिकाका विस्तार एक कोस तथा ऊंचाई भी उतनी ही है ।। १५३ ।। उस पद्मके परिवारका प्रमाण एक लाख चालीस हजार एक सौ पन्द्रह (१४० ११५) कहा गया है ।। १५४ ।। द्रहोंके दोनों तटोंमेंसे प्रत्येक तटपर दस दस कांचन पर्वत हैं जो उक्त द्रहोंके अभिमुख स्थित हैं ।। १५५ ।। कहा भी है -- . प्रत्येक द्रहके पूर्व दिग्भाग और पश्चिम दिग्भागमें एक सौ (१००) योजन मात्र ऊंचे दस दस कांचन पर्वत हैं ॥ १ ॥ वे पर्वत मूल में सौ (१००) योजन, मध्यमें पांचके वर्ग स्वरूप पच्चीससे रहित अर्थात् पचत्तर (७५) योजन और अग्रभागमें पचास (५०) योजन विस्तृत तथा सौ (१००) योजन ऊंचे हैं। यह प्रमाण समान रूपसे उन सभी पर्वतोंका हैं ।। १५६ ॥ क्रीड़ाके आवासरूप इन पर्वतोंके शिखरोंपर तोताके समान कान्तिवाले कांचन देव निवास करते हैं जो सदा प्रमुदित रहते हैं ॥ १५७ ।। कहा भी है-- १५ नद्यास्तु । २ ब रांबुजस्य । ३ आ प दहस्स ह य । ४ ब सोला। ५ प 'वेष्वां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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