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________________ १६] लोकविभागः [१.१३३ - उत्तरस्यां तु शाखायामहदायतनं शुभम् । तिसृष्वन्यासु वेश्मानि याद्दरा नादराख्ययोः ॥१३३ तस्या जम्ब्वा अधस्तात्तु त्रिशतं विस्तृतानि हि । उच्छितानि शतास्याधं भवनान्युक्तदेवयोः।।१३४ आरभ्य बाह्यतः शून्यं प्रथमे च द्वितीयके । तृतीयेऽपि च देवानामष्टाधिकशतद्रुमाः ॥१३५ चतुर्थे प्राक् च देवीनां चतुर्वक्षाश्च पञ्चमे । वनं वाप्यश्चतुष्कोणवत्ताद्याः षष्ठके नभः ॥१३६ प्रत्येकं च चतुर्दिक्षु सप्तमे तनुरक्षिणां । सहस्राणां च चत्वारि वृक्षास्तिष्ठन्ति मञ्जुलाः ॥१३७ ।मिलित्वा १६००० । सामानिकसुराणां स्युरष्टमे पिण्डिता द्रुमाः । ईशाने चोत्तरे वाते सहस्राणां चतुष्टयम् ॥१३८ नवमे दशमे चैकादशे वह्नौ च दक्षिणे । नैऋत्यां त्रिपरिषदामन्तर्मध्यान्ततिनाम् ॥१३९ द्वात्रिंशच्च सहस्राणां चत्वारिंशतथा पुनः । चत्वारिंशत्तथाष्टाग्रा जम्बवृक्षा यथाक्रमम् ॥१४० सेनामहत्तराणां च द्वादशे सप्त पश्चिमे । पद्मस्य परिवारेभ्यः पञ्चाग्रा मुख्यसंयुता ॥१४१ । मुख्यसहितपरिवारवृक्षाः १४०१२० । rrrrrrrrrrrrrrrrrrrr उसकी उत्तर दिशागत शाखाके ऊपर उत्तम जिनभवन तथा अन्य तीन शाखाओंके ऊपर आदर और अनादर नामक व्यन्तर देवोंके भवन हैं ॥१३३॥ उस जंबू वृक्षके नीचे तीन सौ योजन विस्तृत और पचास योजन ऊंचे उक्त दोनों देवोंके भवन हैं ॥१३४।। ___उपर्युक्त बारह पद्मवेदिकाओंमें बाह्य वेदिकाकी ओरसे प्रारम्भ करके प्रथम और द्वितीय अन्तरालमें शून्य और तृतीय अन्तरालमें देवोंके एक सौ आठ वृक्ष हैं।।१३५॥ चतुर्थ अन्तरालमें पूर्व दिशामें देवियोंके चार वृक्ष, पंचम अन्तराल में वन व चतुष्कोण एवं गोल आदि वापियां तथा छठे अन्तरालमें शून्य है ।।१३६।। सातवें अन्तरालमें चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें तनुरक्षक देवोंके सुन्दर चार हजार वृक्ष स्थित हैं ॥१३७।। आठवें अन्तरालमें ईशान, उत्तर और वायु दिशाओंमें सामानिक देवोंके सब मिलकर चार हजार वृक्ष हैं ॥१३८॥ नौवें, दशवें और ग्यारहवें अन्तरालमें अग्नि, दक्षिण और नैऋत्य दिशाओंमें अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य पारिषद देवोंके यथाक्रमसे बत्तीस हजार, चालीस हजार और अड़तालीस हजार जम्बूवृक्ष हैं ॥१३९ -१४०।। बारहवें अन्तरालमें पश्चिम दिशामें सेनामहत्तरोंके सात वृक्ष हैं। पद्मके परिवार पदोंकी अपेक्षा ये जम्बूवृक्ष एक मुख्य तथा चार अग्रदेवियोंके इस प्रकार पांच वृक्षोंसे अधिक हैं, अर्थात् वे इन मुख्य वृक्षोंसे सहित परिवार वृक्ष १४०१२० हैं ॥१४१॥ १५ व वेश्मनि पादरा० । २ व कोण । ३ आ सपरिवार । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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