SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - १.११५ प्रथमो विभागः [१३ रोहिच्च षोडशाद्रौ तु पञ्चाग्राणि शतानि हि । आगत्य च कलाः पञ्च शतार्धे पतिता गिरेः।।१०८ यो १६०५ । १५ । उदीच्यां हरिकान्ता च तावदेव गता गिरौ । संप्राप्य च शते कुण्डं समुद्रं पश्चिमं गता ।।१०९ एकविंशानि चत्वारि सप्तति च शतानि तु । कलां च हरिदागत्य निषधे पतिता भुवि ।।११० यो ७४२१ । । सौतोदापि ततो गत्वा तावदेव गिरिस्थले । द्विशताच्च भुवं प्राप्य पश्चिमाम्बुनिधि गता ॥१११ गङ्गा रोहिद्धरित्सीता नारी च सरिदुत्तमा । सुवर्णा च तथा रक्ता पूर्वाः शेषाश्च पश्चिमाः।।११२ श्रद्धावान् विजटावांश्च पद्मवानपि गन्धवान् । वृत्तास्ते विजयार्धाख्या मध्य[ध्ये] हैमवतादिषु।।११३ सहस्रविस्तृता मूले मध्ये तत्तुर्यहीनकाः । शिखरेधं सहस्रं तु सहस्र शुद्धमुच्छिताः ।। ११४ १००० । ७५० । ५०० । १००० । ते च शैला महारम्याः नानामणिविभूषिताः । कुक्कुटाण्डप्रकाशाभा दृष्टाः केवललोचनः ।।११५ (१०५२३१-५०० २= २७६६९) उत्तरकी ओर जाकर और फिर नीचे गिरकर श्रीगृहको प्राप्त हुई है ॥१०७॥ रोहित नदी सोलह सौ पांच योजन और पांच कला (४२१०१९१०००:२-१६०५कर) प्रमाण आकर हिमवान् पर्वतको पचास योजन छोड़ती हुई उससे नीचे गिरी है ॥१०८॥ हरिकान्ता नदी भी उत्तरमें उतने (१६०५३) ही योजन पर्वतके ऊपर जाकर और फिर सौ योजन पर्वतको छोड़कर कुण्डको प्राप्त होती हुई पश्चिम समुद्र में प्रविष्ट हुई है ॥१०९।। हरित् नदी चौहत्तर सौ इक्कीस योजन और एक कला प्रमाण १६८४२पर-२०००: २=७४२११९)निषध पर्वतके ऊपर आकर उससे नीचे पृथिवीमें गिरी है ॥११०।। सीतोदा नदी भी निषध पर्वतके ऊपर उतने (७४२१११) ही योजन जाकर और उसे दो सौ योजन छोड़कर पृथिवीपर गिरती हुई पश्चिम समुद्रमें प्रविष्ट हुई है ॥१११।। गंगा, रोहित्, हरित्, सीता, नारी, सुवर्णकूला और रक्ता; ये पूर्वकी महानदियां पूर्व समुद्रमें तथा शेष नदियां पश्चिम समुद्रमें प्रविष्ट हुई हैं ॥११२॥ हैमवत आदि (हैमवत, हरि, रम्यक और हैरण्यवत ) चार क्षेत्रोंके मध्यमें श्रद्धावान्, विजटावान्, पद्मवान् और गन्धवान् ; ये विजयार्ध नामसे प्रसिद्ध चार वृत्त (गोलाकार) पर्वत हैं ।।११३॥ ये पर्वत मूलमें एक हजार योजन विस्तृत, मध्यमें उसके चतुर्थ भागसे हीन अर्थात् साढ़े सात सौ योजन विस्तृत, शिखरपर पांच सौ योजन विस्तृत और शुद्ध एक हजार योजन ऊंचे हैं ।।११४।। वे पर्वत अतिशय रमणीय, नाना मणियोंसे विभूषित और मुर्गाके अण्डेके १५ गिरिस्थिते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy