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________________ १२] लोकविभागः [१.१०० - धनुस्त्रिद्वधेकसहस्रं मूलमध्यानविस्तृतम् । पञ्चशत्यर्धमन्तश्च द्विसहस्रोच्छ्रितं गृहम् ।।१०० ३००० । २००० । १००० । ७५० । २००० ।। चत्वारिंशद्धनासं तस्माच्च द्विगुणोच्छियम् । वज्रयुग्मकवाटं च द्वारं गिरिगृहस्य' च ॥१०१ ।४०। ८० । कुण्डाद्दक्षिणतो गत्वा भूमिभागेषु वक्रिता । विजयार्धगुहायां च अष्टयोजनविस्तृता ॥१०२ सहस्रः सप्तभिर्गङ्गा द्विगुणैः सरितां सह । संगता प्राग्मुखं गत्वा प्राविक्षल्लवणोदधिम् ॥१०३ । १४००० । त्रिगव्यूति त्रिनति गङ्गातोरणमुच्छ्रितम् । अर्घयोजनगाधं च नदीविस्तारविस्तृतम् ।।१०४ । यो ९३ को ३ । यो ६२ को २ । सदृशी गगया सिन्धुः दिग्विभागाद्विना पुनः । जिबिकादीनि सरितां द्विगुणान्याविदेहतः।।१०५ तोरणेषु वसन्त्येषु दिक्कुमार्यो वाङ्गनाः । तोरणानां तु सर्वेषामवगाहः समो मतः ॥१०६ द्वे शते' सप्तति षट् च षट्कलाश्चोत्तरामुखम् । रोहितास्या गिरौ गत्वा पतित्वा श्रीगृहे गता ॥१०७ यो २७६ । ६ । श्रीगृहका विस्तार मूलमें तीन हजार, मध्य में दो हजार और ऊपर एक हजार धनुष प्रमाण तथा अभ्यन्तर विस्तार पांच सौ और उनके आधे अर्थात् साढ़े सात सौ धनुष प्रमाण है। उसकी ऊंचाई दो हजार धनुष मात्र है॥१००॥ वज्रमय कपाटयुगलसे संयुक्त उस श्रीगृहका द्वार चालीस (४०) धनुष विस्तृत और इससे दूना (८०) ऊंचा है ।।१०१॥ गंगा नदी इस कुण्डसे दक्षिणकी ओर जाकर आगेके भूमिभागोंमें कुटिलताको प्राप्त होती हुई विजयार्धकी गुफामें आठ योजन विस्तृत होकर प्रविष्ट होती है ।।१०२।। अन्त में वह दुगुने सात अर्थात् चौदह हजार नदियोंसे संयुक्त होकर पूर्वकी जाती हुई लवण समुद्र में प्रविष्ट हुई है।॥१०३ समुद्रके प्रवेशस्थान में तेरानबै योजन और तीन कोस ऊंचा, आधा योजन अवगाहसे सहित तथा नदीविस्तारके बराबर विस्तृत गंगातोरण है ॥१०४।। दिग्विभागको छोड़कर शेष विस्तार आदिके विषयमें सिन्धु नदी गंगाके समान है। इन नदियोंकी नाली आदि विदेह पर्यन्त उत्तरोत्तर दूनी दूनी हैं ।।१०५।। इन तोरणोंके ऊपर दिक्कुमारी वरांगनायें ( उत्तम महिलायें) निवास करती हैं । सब तोरणोंका अवगाह समान माना गया है ।।१०६॥ रोहितास्या नदी हिमवान् पर्वतके ऊपर दो सौ छयत्तर योजन और छह कला १ आ प गुहस्य । २ आ प शाते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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