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- १.९९ ]
प्रथमो विभाग:
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गत्वा पञ्चशतं प्राच्यां गङ्गा व
निवृत्य च । दक्षिणा भरतव्यासे पञ्चवर्गे च तद्गिरेः ॥ ९२ षट् च विस्तीर्णा बहला चार्धयोजनम् । जिह्निका वृषभाकारास्त्यायता चार्धयोजनम् ।। ९३ यो ६ को १
जिह्विकायां गता गङ्गा पतन्ती श्रीगृहे शुभे । गोशृङ्गसंस्थिता भूत्वा पतिता दशविस्तृता ॥ ९४ कूटाकृति दधानस्य श्रीगृहस्योदितद्युतेः । कूटान्त स्थित जैनेश प्रतिबिम्बस्य भास्वतः || ९५ पपातोपरि सा गङ्गा रङ्गत्तुङ्गतरङ्गिणी । स्वस्याम्भोधारया सम्यगभिषेक्तुमना इव ॥ ९६ जटामुकुटशेखरं प्रणतवारिनिर्घोषकम् । नमामि जिनवल्लभं कमलकणिकाविष्टरम् ॥९७ योजनानां भवेत् षष्टिः कुण्डस्य दश गाधकम् । मध्ये ऽष्ट विस्तृतो द्वीपो जलाद्विकोशमुच्छ्रितः॥ ९८ मूले मध्ये च शिखरे चतुद्वर्चेकानि' विस्तृतः । योजनानि दशोद्विद्धो द्वीपे वज्रमयो गिरिः ।। ९९
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पद्मद्रहसे निकलकर पांच सौ योजन पूर्व की ओर जाती हुई गंगाकूट के दो कोस इधर से दक्षिण की ओर लौटकर [ और फिर पांच सौ तेईस योजन और साधिक आधा कोस पर्वत के ऊपर जाकर ] भरत क्षेत्र में पांचके वर्ग प्रमाण अर्थात् पच्चीस योजन पर्वतसे [ उसे छोड़कर नीचे गिरती है ] | यहांपर सवा छह ( ६ ) योजन विस्तीर्ण, आधा योजन बाहल्यसे संयुक्त, और आधा योजन ही आयत वृषभाकार जिह्विका (नाली ) है । इस नाली में प्रविष्ट होकर वह गंगा उत्तम श्रीगृहके ऊपर गिरती हुई गोसींगके आकार होकर दस योजन विस्तार के साथ नीचे गिरी है । ।। ९२ - ९४ ।। जो श्रीगृह कूटकी आकृतिको धारण करनेवाला, वृद्धिगत कान्तिसे सहित, कूटके अन्त में स्थित जिनेन्द्रप्रतिबिम्बसे संयुक्त तथा प्रभावर है; उसके ऊपर अपनी चंचल उन्नत तरंगों से संयुक्त वह गंगा मानो अपनी जलधारासे जिनेन्द्र देवका अभिषेक करनेको इच्छासे ही गिरती है ।। ९५-९६ ।। यह प्रतिमा जटा, मुकुट एवं मालासे सुशोभित; नम्रीभूत जलके निर्घोष ( शब्द ) से सहित और कमलकी कणिकारूप आसनपर विराजमान है। उसके लिये मैं नमस्कार करता हूं ॥ ९७ ॥
उस कुण्डका विस्तार साठ योजन और गहराई दस योजन है। इसके मध्य में जलसे दो को ऊंचा और आठ योजन विस्तृत द्वीप है || ९८ || इस द्वीप में दस योजन ऊंचा वज्रमय पर्वत है । उसका विस्तार मूल में चार, मध्यमें दो और शिखरपर एक योजन मात्र है ।। ९९ ।।
१ प चतुर्थद्वकानि ।
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