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________________ - १.८४ ] प्रथमो विभाग: सिद्धायतननीले च प्राग्विदेहाख्यकं पुनः । सीताकीर्त्योश्च कूटे द्वे नरकान्ताख्यमेव च ।। ७६ अपदर्शनकं चैव सममानानि नैषधैः ॥ ७७ अपरेषां विदेहानां रम्यकं चाष्टमं भवेत् सिद्धाख्यं इग्मिणो रम्यकं नारीकूटमेव | बुद्धयाश्च रूप्यकूलाया हैरण्यं मणिकाञ्चनम् ॥७८ सिद्धं शिखरिणः कूटं हैरण्यं रसदेविकम् । रक्ता लक्ष्मी' सुवर्णानां रक्तवत्याश्च नामतः ॥ ७९ गन्धवत्याश्च नवमं नाम्नैरावतमित्यपि । मणिकाञ्चनकूटं च समान्रि हिमवगिरेः ॥ ८० सिद्धाख्यमुत्तराधं च तामिश्रगुहकं तथा । कूटं तु माणिभद्रं च विजयार्धकुमारकम् ॥ ८१ कूटं च पूर्णभद्राख्यं प्रपातं खण्डकस्य च । दक्षिणैरावताधं च अन्त्यं वैश्रवणं शुभम् ॥ ८२ सहस्रमायतः पद्मस्तदर्धमपि विस्तृतः । योजनानि दशागाढे हिमवन्मूर्धनि हृदः ॥ ८३ । १००० । महापद्मोऽथ तिगच्छः केसरी च महानपि । पुण्डरीको हृदश्चाथ गिरिषु द्विगुणाः क्रमात् ॥ ८४ उदाहरण ( १ ) जैसे विजयार्धकी जीवाका प्रमाण १०७२०१३ यो. है । इसमें दक्षिण भरत क्षेत्रकी जीवा ९७४८३३ को घटा देनेपर शेष ९७११६ रहते हैं । इसका अर्ध भाग ४८५ यो होता है। यह विजयार्धकी चूलिकाका प्रमाण होता है । (२) विजयार्धके धनुष १०७४३१३ यो. मेंसे दक्षिण भरत क्षेत्रके धनुष ९७६६ १२ घटाकर शेष ( ९७७३४ ) को आधा कर देनेपर ४८८ यो होता है । यह विजयार्धकी पार्श्वभुजाका प्रमाण होता है । सिद्धायतन, नील, प्राग्विदेह, सीताकूट, कीर्तिकूट, नरकान्ता, अपरविदेह, रम्यक और अपदर्शन; ये निषध पर्वत के ऊपर स्थित कूटोंके समान प्रमाणवाले नौ कूट नील पर्वतके ऊपर स्थित हैं । ७६-७७ ।। सिद्ध, रुग्मि, रम्यक, नारी, बुद्धि, रुप्यकूला, हैरण्य और मणिकांचन; ये आठ कूट रुग्मि पर्वत के ऊपर स्थित हैं ।। ७८ ।। सिद्ध, शिखरी, हैरण्य, रसदेवी, रक्ता, लक्ष्मी, सुवर्ण, रक्तवती, गन्धवती, ऐरावत और मणिकांचन; ये ग्यारह कूट हिमवान् पर्वतके समान शिखरी पर्वतके ऊपर स्थित हैं ।। ७९-८० ।। सिद्ध, उत्तरार्ध ऐरावत, तमिश्रगुह, माणिभद्र, विजयार्ध कुमार, पूर्णभद्र, खण्डप्रपात, दक्षिण ऐरावतार्ध और अन्तिम वैश्रवण ; ये नौ कूट ऐरावत क्षेत्रके विजयार्धके ऊपर स्थित हैं ।८१-८२॥ हिमवान् पर्वतके ऊपर एक हजार (१००० ) योजन लम्बा, उससे आधा अर्थात् पांच सौ ( ५०० ) योजन विस्तारवाला और दस (१०) योजन गहरा पद्म नामका तालाब स्थित है || ८३ ॥ आगे महाहिमवान् आदि शेष पांच पर्वतोंके ऊपर इससे दूने प्रमाणवाले ( उत्तरके १ ब ' सिद्धाख्यं नास्ति । २ अ प लक्षी । लो. २ Jain Education International [९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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