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लोकविभागः
[ १.६८
त्रिसप्ततिसहस्राणि शतानि नव चैककम् । भागास्सप्तदशापि ज्या हरिवर्षोत्तरा स्मृता ॥ ६८
यो ७३९०१ । १ ।
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सहस्राणामशीतिश्च चतुष्कमथ षोडश । चत्वारश्च तथा भागा धनुः पृष्ठमिहोदितम् ॥ ६९ यो ८४०१६। । ।
नवतिश्च सहस्राणि चत्वारि च पुनः शतम्' । षट्पञ्चाशच्च संधा ज्या निषधे द्विकलाधिका ॥ ७० यो ९४१५६ । ६ ।
चतुविशं सहस्राणां शतं च त्रिशतानि च । षट्चत्वारिंशदग्राणि कला नव च तद्धनुः ।। ७१ यो १२४३४६ । १९ ।
चैत्यस्य निषधस्यापि हरिवर्षस्य चापरम् । पूर्वेषां च विदेहानां हरित्कूटं धृतेस्तथा ॥ ७२ सीतोदापरविदेहं रुचकं नवमं भवेत् । सर्वरत्नानि तानि स्युरुच्छ्रयः शतयोजनम् ७३ ।। दक्षिणार्धस्य यन्मानमाविदेहेभ्य उच्यते । तदेवोत्तरभागस्य यथासंभवमुच्यताम् ॥ ७४ जीवाशोधित 'जीवाधं नामतश्चूलिकोच्यते । चापशोधित' चापाधं भवेत्पार्श्वभुजेति च ।। ७५
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ऊंचा है ॥ ६६-६७ ।। हरिवर्ष क्षेत्रकी उत्तर जीवा तिहत्तर हजार नौ सौ एक योजन और सत्तरह भाग ( ७३९०११) प्रमाण स्मरण की गई है || ६८ || इसके धनुषका प्रमाण यहां अस्सी और चार अर्थात् चौरासी हजार सोलह योजन तथा चार भाग ( ८४०१६०५ ) प्रमाण कहा गया है ।। ६९ ।। नब्बे और चार अर्थात् चौरानबे हजार एक सौ छप्पन योजन और दो कला ( ९४१५६ १९), यह निषेध पर्वतकी जीवाका प्रमाण है ।। ७० ।। इसके धनुषका प्रमाण सौ और चौबीस अर्थात् एक सौ चौबीस हजार तीन सौ छ्यालीस योजन और नौ कला ( १२४३४६१२) मात्र है ।। ७९ । चैत्य ( सिद्ध) कूट, निषधकूट, हरिवर्षकूट, पूर्वविदेहकूट, हरित्कूट, धृतिकूट, सीतोदाकूट, अपरविदेहकूट और नौवां रुचककूट; इस प्रकार ये नौ कूट निषध पर्वतके ऊपर स्थित हैं । वे कूट सर्वरत्नमय हैं । उंचाई उनकी सौ योजन मात्र है ।। ७२-७३ ।।
जम्बूदीप दक्षिण अर्ध भाग में स्थित क्षेत्र - पर्वतादिकों के विस्तारादिका प्रमाण जो विदेह क्षेत्र पर्यन्त यहां कहा गया है उसीको यथासम्भव उसके उत्तर अर्ध भाग में भी कहना चाहिये ।। ७४ ।। अधिक जीवामेंसे हीन जीवाको कम करके शेषको आधा करनेपर जो प्राप्त हो उसे चूलिका कहा जाता है। इसी प्रकार अधिक धनुषमें से हीन धनुषको कम करके शेषको आधा करनेपर जो प्राप्त हो उसे पार्श्वभुजा कहा जाता है ।। ७५ ।।
१ आप पुनः स्मृतम् । २ ब शोदित ।
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