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________________ - १.६७ ] प्रथमो विभागः [ ७ पञ्चवर्गः सहस्राणां द्वे शते त्रिंशदेव च । चतस्रश्च कला वेद्या हिमवच्चापदण्डके ।। ५८ यो २५२३० । है । सिद्धायतनकूटं च हिमवद्भरतादिके । इला गङगा श्रिया चैव रोहितास्याख्यमेव च ।। ५९ सिन्धोरपि सुरादेव्या तत्र हैमवतं परम् । कूटं वैश्रवणस्यापि रत्नान्येतानि जातितः ॥ ६० पञ्चविंशतिमुद्विद्धं मूले तत्सम विस्तृतम् । चतुर्भागोनकं मध्ये अग्रे द्वादश सार्धकम् ।। ६१ १८ | 3⁄4 । १२ । ३। सप्तत्रिंशत्सहस्त्राणि षट्छतानि च सप्ततिः । चतुष्कं षोडश कला ज्योना हैमवतान्तिमा ।। ६२ यो ३७६७४ । १६ । अष्टत्रिशत्सहस्राणि सप्तभिश्च शतैः सह । चत्वारिंशच्च तच्चापं कला दश च साधिकाः ।। ६३ यो ३८७४० । १९ । त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि एकत्रिंशान्यतो नव । शतानि च कलाः षट् च ज्या महाहिमवगिरेः ॥ ६४ यो ५३९३१ । १९ । द्वे शते त्रिनवत्य सप्तपञ्चाशदेव च । सहस्राणि कलाश्चान्या दश तच्चापपृष्ठकम् ।। ६५ यो ५७२९३ । १९ । सिद्धायतनकूटं च महाहिमवतोऽपि च । ततो परं हैमवतं रोहिताकूटमित्यपि ।। ६६ होकूटं हरिकान्तायाः हरिवर्षकमेव च । वैडूर्यकूटमन्त्यं च रत्नं पञ्चाशदुच्छ्रयम् ॥ ६७ २४९३२१३ यो. बतलाया गया है ] ।। ५७ ।। हिमवान् पर्वतके धनुषका प्रमाण पांचका वर्ग अर्थात् पच्चीस हजार दो सौ तीस योजन और चार कला ( २५२३०१९) जानना चाहिये ।। ५८ ।। सिद्धायतनकूट, हिमवान्कूट, भरतकूट, इलाकूट, गंगाकूट, श्रीकूट, रोहितास्याकूट, सिन्धुकूट, सुरादेवीकूट, हैमवतकूट, और वैश्रवणकूट; ये हिमवान् पर्वतके ऊपर स्थित ग्यारह कूट जातिसे रत्नमय हैं ।। ५९-६० ।। प्रत्येक कूट पच्चीस योजन उद्वेध ( अंवगाह ) से सहित और उतना ( २५ यो . ) ही मूलमें विस्तृत है । उसका विस्तार मध्य में चतुर्थ भागसे हीन पच्चीस (१८३ ) योजन और ऊपर साढ़े बारह (१२३) योजन मात्र है ।। ६१ ।। हैमवत क्षेत्रकी अन्तिम जीवाका प्रमाण सैंतीस हजार छह सौ चौहत्तर योजन और सोलह कला ( ३७६७४१६ ) से कुछ कम है ।। ६२ ।। उसका धनुष अड़तीस हजार सात सौ चालीस योजन और दस कला ( ३८७४०३९ कुछ अधिक है ।। ६३ ।। महाहिमवान् पर्वतकी जीवा तिरेपन हजार नौ सौ इकतीस योजन और छह कला (५३९३११९) प्रमाण है ।। ६४ ।। उसका धनुषपृष्ठ सत्तावन हजार दो सौ तिरानबे योजन और दस कला ( ५७२९३३) प्रमाण है ।। ६५ ।। सिद्धायतनकूट महाहिमवान्कूट, हैमवतकूट, रोहिताकूट, हीकूट, हरिकान्ताकूट, हरिवर्षकूट और अन्तिम रत्नमय वैडूर्यकूट; ये आठ कूट महाहिमवान् पर्वतके ऊपर स्थित हैं । इनमेंसे प्रत्येक कूट पचास योजन १ प वृतानि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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