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________________ ३६ ] लोकविभागः यह एक तीसरा भी उदाहरण देखिये -- जोइसदेवीणाऊ सग-सगदेवाणमद्धयं होदि। सव्वणिगिट्ठसुराणं बत्तीसा होंति देवीओ।। ४४९, इसका निम्न श्लोकसे मिलान कीजिये-- आयुर्योतिष्कदेवीनां स्व-स्वदेवायुरर्धकम् । सर्वेभ्यश्च निकृष्टानां देव्यो द्वात्रिंशदेव च ॥६-२३५. ___ इस प्रकारसे अन्य (४-२२ त्रि. ३५७, ६-१२८ त्रि. ३९५, ९, ७-८ त्रि. २९७ तथा ९-९ त्रि. २९९ आदि) भी कितने ही उदाहरण दिये जा सकते हैं। त्रिलोकसारके अन्तमें (गा. ९७८-१०१४) अकृत्रिम जिनभवनोंका वर्णन किया गया है। उसका अनुसरण करके प्रस्तुत लो. वि. में भी सुमेरुके वर्णनमें उन जिनभवनों प्रायः उसी रूपसे वर्णन किया गया है। इसमें लो. वि. के १,२९५-३११ श्लोकोंका त्रि. सा. की ९८४-१०१ गाथाओंसे मिलान किया जा सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थके ८वें विभागमें श्लोक ४६-४७ द्वारा सातवीं पृथिवीके ४ श्रेणीबद्ध और १ इन्द्रक इन ५ नारक बिलोंके विन्यासको बतलाकर आगे — उक्तं च' कहते हुए ' मनुष्यक्षेत्रमानः स्यात् ' आदि एक श्लोक दिया गया है, जो पूर्वोक्त विषयसे विषयान्तरको प्राप्त होकर गणितसूत्रके रूपमें ४९ इन्द्रक बिलोंके विस्तारका सूचक है। यह श्लोक किस ग्रन्थका है, यह ज्ञात नहीं होता। परन्तु वह त्रिलोकसारकी निम्न गाथाके छायानुवादके समान है-- माणुसखेत्तपमाणं पढम चरिमं तु जंबुदीवसमं । उभयविसेसे रूणिदयभजिदम्हि हाणि चयं ॥ १६९. आश्चर्य नहीं जो ' उक्तं ' च कहकर इसी गाथाको वहां देना चाहते हों और अनुवाद कर दिया हो संस्कृतमें । उसका उत्तरार्ध भी शुद्ध उपलब्ध नहीं है । जैन सं. सं. संघ सोलापूर बालचन्द्र शास्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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