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________________ प्रस्तावना लो. वि. ८७ पृ. ६-८(उ)। ९-१० ११-१३ ४१ । ४२-४४ ४५ ।। आ. पु. ३रा पर्व ५५-५७ । ६३-६४ ६९-७१ ७९ ८१-८३ ८५ लो. वि. | ४७ ४८ ४९ । ५४-५५ ५६ । ५७-६३ । ६५-७० ७१-७३ आ. पु. | ९० / ९२ ९३ १०४-- ५ १०७ १०९.-११५ ११८-२३ /१२५-२७ लो. वि. । ७४-७५/ ७६७७-७८ । ७९ । ८०-८१ आ. पु. १२९-३० १३२ १३४-३५ १३७ १३९-४० | लो. वि. | ८४-८५ ८६ । ८७-८८ ८९-९०। ९१-१३७ आ. पु. १४६-४७ १४९ १५२-५३ १६४-६५ १८२-२२८ १४२ १४४ अब ३९, ४०, ४६,५०-५३ और ६४ ये ८ श्लोक रह जाते हैं । इनको आदिपुराणगत कुछ श्लोकोंके पूर्वार्ध-उत्तरार्ध भागोंसे या उनके विविध पादोंसे पूर्ण किया गया है । जैसे- श्लोक ३९ की पूर्ति आ. पु. के ७२वें श्लोकके पू. और ७६ के पू. भागसे तथा श्लोक ५० की पूर्ति उसके ९४वें श्लोकके पू., ९५वें के प्र. पाद और ९६वें के च. पादको लेकर की गई है। परन्तु इस प्रकारकी पूर्तिसे पूर्वापर सम्बन्ध टूट गया है। (देखिये पीछे ग्रन्थपरिचय पृ. १०) १२. लोकविभाग व त्रिलोकसार श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा विरचित त्रिलोकसार ( शक की १०वीं शताब्दिका पूर्व भाग) ग्रन्थमें तीनों लोकोंका वर्णन व्यवस्थित रीतिसे किया गया है। वह भी प्रस्तुत ग्रन्थकी रचनाके समय सिंहसूर्षिके समक्ष रहा है, यह उनके द्वारा नामोल्लेखके साथ उससे उद्धृत की गई गाथाओंसे ही सिद्ध है। प्रस्तुत ग्रन्थमें सिंहसूरषिके द्वारा उक्त त्रिलोकसारकी लगभग ३९-४० गाथायें उद्धृत की गई हैं । इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रकृत ग्रन्थकी रचनामें भी इसका पर्याप्त उपयोग ही नहीं किया, अपि तु उसकी पचासों गाथाओंका लगभग छायानुवाद जैसा किया है । इसके लिये यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से कुछ थोड़े-से उदाहरण दिये जाते हैं छम्मासद्धगयाणं जोइसयाणं समाणदिणरत्ती। तं इसुपं पढम छसु पव्वसु तोदेसु तदियरोहिणिए ॥४२१. यह त्रिलोकसारकी गाथा है । इसका मिलान प्रस्तुत ग्रन्थके इन पद्योंसे कीजिये-- षण्मासार्धगतानां च ज्योतिष्काणां दिवानिशम् । समानं च भवेद्यत्र तं कालमिषुपं विदुः ॥ प्रथम विषुवं चास्ति षट्स्वतीतेषु पर्वसु। तृतीयायां च रोहिण्यामित्याचार्याः प्रचक्षते॥६,१५०-५१. यह एक दूसरा उदाहरण देखिये -- जंबचारधरूणो हरिवस्ससरो य णिसहबाणो य । इह वाणावटें पुण अब्भंतरबोहिवित्थारो॥ ३९२. इस त्रिलोकसारकी गाथाका प्रस्तुत लो. वि. के निम्न श्लोकसे मिलान कीजियेजम्बूचारधरोनौ हरिभू-निषधाशुगौ । इह बाणौ पुनर्वृत्तमाद्यवीथ्याश्च विस्तृतिः ॥६-२११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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