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________________ लोकविभागः प्रस्तुत ग्रन्थमें भी ठीक उसीके आगे उक्त जगतीका वर्णन इस प्रकारसे प्रारम्भ कियां गया है --- द्वादशाष्टौ चतुष्कं च मूलमध्यानविस्तृता । जगत्यष्टोच्छया भूमिमवगाढायोजनम् ॥ सर्वरत्नमयी मध्ये वैडूर्यशिखरोज्ज्वला। वज्रमूला च सा दीपं परिक्षिपति सर्वतः ॥३,१३०-३१. इस प्रकार ह. पु. में जहाँ उक्त जगतीका प्रथम श्लोकमें ही 'द्वीपं परिक्षिपति सर्वतः' इस उल्लेखके द्वारा जम्बूद्वीपसे सम्बन्ध प्रदर्शित किया गया है वहाँ प्रस्तुत ग्रन्थमें उसका सम्बन्ध द्वितीय श्लोकमें उसी · टीपं परिक्षिपति सर्वतः के द्वारा जम्बूद्वीपके साथ प्रदर्शित किया गया है । आगे उक्त जगतीके वर्णनमें प्रस्तुत ग्रन्थके ३३१-४२ श्लोक उसी क्रमसे ह. पु. के ३७९-९० श्लोकोंके साथ न केवल अर्थतः ही समान हैं, अपितु शब्दशः भी प्रायः (जैसे- श्लोक ३३७-३८ व ३४१-४२ ह. पु. ३८५-८६ व ३८९-९० आदि) समान हैं। इन उदाहरणोंसे यह भली भांति सिद्ध है कि प्रस्तुत ग्रन्थकी रचनामें श्री सिंहसूरपिने न केवल हरिवंशपुराणका अनुसरण ही किया है, बल्कि उसके अनेक श्लोकोंको विना किसी प्रकारके उल्लेखके प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तर्गत भी कर लिया है। ११. लोकविभाग व आदिपुराण श्री. आचार्य जिनसेन स्वामी द्वारा विरचित महापुराण (आदिपुराण व उत्तरपुराण) के तीसरे पर्वमें पीठिकाके व्याख्यानमें कालको प्ररूपणा की गई है। इस प्ररूपणामें वहाँ सुषम-सुषमा, सुषमा और सुषम-दुषमा कालोंमें होनेवाले नर-नारियोंकी अवस्थाका विशद वर्णन किया गया है । प्रस्तुत लोकविभागके पांचवें प्रकरणमें उक्त कालका वर्णन करते हुए श्लोक ३८ में यह कहा गया है कि तृतीय कालमें जब पल्योपमका आठवां भाग (2) शेष रह जाता है तब चौदह कुलकर और तत्पश्चात् आदि जिनेन्द्र भी उत्पन्न होते हैं । इसके आगे · उक्तं चार्षे' कहकर १३७वें श्लोक तक १०७ श्लोकोंके द्वारा १४ कुलकरोंकी आयु आदि व उनके समयमें होनेवाली आर्य जनोंकी अवस्थाओंका वर्णन किया गया है । ये सब ही श्लोक आदिपुराणमें पूर्णरूपमें या विभिन्न पादोंके रूपमें पाये जाते हैं । इस वर्णनमें श्री सिंहसूरपिने, जैसे इसी प्रकरणमें आगे (पृ. ९९) ' उक्तं च द्वयं त्रिलोकप्रज्ञप्तौ' ऐसा कहकर उद्धृत की जानेवाली गाथाओंकी संख्याका भी स्पष्ट उल्लेख कर दिया है, वैसे उन आर्षके श्लोकोंकी संख्याका उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा । इस प्रकरणमें उक्त आदिपुराणके जो श्लोक परिपूर्णरूपमें पाये जाते हैं उनकी तालिका इस प्रकार है-- १. इनके अतिरिक्त प्रस्तुत ग्रन्थके ३, १३-२१ श्लोकोंका भी ह. पु. के ५, ५०६-१४ श्लोकोंसे मिलान कीजिये । इनमें भी किसीका पूर्वार्ध तो किसीका उत्तरार्ध प्रायः जैसाका तैसा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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