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________________ प्रस्तावना [ ३३ ये कुछ थोड़े-से ही उदाहरण यहां दिये हैं। ऐसे अन्य भी बीसों उदाहरण दिये जा सकते हैं । इससे यह निश्चित है कि प्रस्तुत ग्रन्थकी रचनामें श्री सिंहसूषिने तिलोयपण्णत्तीका अत्यधिक उपयोग किया है। १०. लोकविभाग व हरिवंशपुराण श्री. नाटसंघीय जिनसेनाचार्य द्वारा विरचित हरिवंशपुराण (शक सं. ७०५) प्रथमानुयोगका एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसके ३ सर्गों (४-६) में तीन लोकोंकी विस्तारसे प्ररूपणा की गई है। श्रीसिंहसूर ऋषिने प्रस्तुत लोकविभागकी रचनामें इसका भी पर्याप्त उपयोग किया है । उन्होंने प्रथम विभागमें जो द्वितीय जम्बूद्वीपका वर्णन किया है उसमें ह. पु. के ५वें सर्गके ३९८.४०२ श्लोक क्रमसे यहाँ ३४६-५० संख्यासे अंकित उपलब्ध होते हैं। इसके आगेके श्लोक ४११-१६ भी प्रस्तुत लो. वि. के प्रथम विभागमें ही क्रमसे ३६५.७० संख्यांकोंसे अंकित पाये जाते हैं । ये सब श्लोक हरिवंशपुराणसे यहाँ प्रायः जैसेके तैसे ले लिये गये हैं । यदि इनमें कहीं कोई भेद पाया जाता है तो केवल एक आध शब्दका ही भेद पाया जाता है। उदाहरणार्थ यह श्लोक देखिये-- प्रासादे विजयस्यात्र सिंहासनमनुत्तरम् । सचामरसितच्छत्रं तत्र पूर्वमुखोऽमरः ॥ ह. पु. ५-४११. प्रासादे विजयस्यात्र सिंहासनमनुत्तरम् । सचानरं च सच्छत्रं तस्मिन् पूर्वमुखोऽमरः ॥ लो. वि. १-३६५. यहाँ मात्र तीसरे चरणमें यत् किंचित् परिवर्तन किया गया है । इससे हरिवंशपुराण. कारका जो धवल छत्रसे तात्पर्य था वह यहाँ समाप्त हो गया है। चतुर्थ चरणमें 'तत्र' के स्थानमें ' तस्मिन् ' का उपयोग किया गया है। ह. पु. के ४१३वें श्लोकके 'मध्यमा दश बोद्धव्या दक्षिणस्यां दिशि स्थिता' इस उत्तरार्धमें यहाँ यह परिवर्तन किया गया है-- दश मध्यमिका वेद्या दक्षिणस्यां तु सा दिशि । इस परिवर्तनमें ' मध्यमा' जैसे सुन्दर पदके स्थानमें — मध्यमिका' किया गया है, तथा 'स्थिता' पदका अभिप्राय रह ही गया है। हरिवंशपुराण (५, ३७४-७६) में कितने ही नामान्तरोंसे मेरु पर्वतका जिस प्रकार कीर्तन किया गया है उसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थमें भी उन्हीं या उन जैसे १६ नामोंके द्वारा उसका कीर्तन किया गया है (१, ३२७-२९)। ___ ठीक इसके आगे ह. पु. में जम्बूद्वीपकी जगतीके वर्णनका प्रारम्भ करते हुए उसका उल्लेख इस प्रकारसे किया है-- इति व्यावणितं द्वीयं परिक्षिपति सर्वतः । पर्यन्तावयवत्वेन सास्यैव जगती स्थिता ॥ मूले द्वादश मध्येऽष्टौ चत्वार्यग्ने च विस्तृता । अष्ट्रोच्छ्यावगाढा तु योजनार्धमधो भुवः॥ ह. पु. ५,३७७-७८. १. जैसे ति. प. ४ – २५८१ व लो. वि. ३- २३, ति. ५-८२ व लो. ४-५०, ति. प. ५ - १६५ व लो. वि. ४-८८, ति. प. ८, ४४८-५१ व लो. वि.१०, ९०-९२ (त्रि. सा. ४८६-८७), तथा ति. प. ८, ४४६-४७ व लो. वि. १०, २७३-२७५, ति. प. ८, ५९४ व लो. वि. १०-३४१, ति. प.८-५०९, ५११ व लो. वि. १०,२३४-२३५ आदि । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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