________________
३२ I
लोकविभागः
futureट्ठपमाणाओ होंति पइण्णयतियस्स देवीओ 1
सव्वणिगट्ठसुराणं पि देवीओ बत्तीस पत्तेक्कं ॥ ३-१०८.
इसका छायानुवाद सिंहसूरषिने इस प्रकार किया है
प्रकीर्णत्रयस्यापि जिनदृष्टप्रमाणकाः । देव्यः सर्वनिकृष्टानां द्वात्रिंशदिति भाषिताः ॥ ७-६६, ति. प. में १६ कल्पों विषयक मान्यताके अनुसार उन उन कल्पोंमें विमान संख्या के प्ररूपणकी प्रतिज्ञा इस प्रकार की गई है
जे सोलस कप्पाई केई इच्छंति ताण उवएसे ।
तस्सि तस्सि वोच्छं परिमाणाणि विमाणाणं ।। ८-१७८.
अब इसका छायानुवाद प्रस्तुत ग्रन्थमें देखिये --
ये च षोडश कल्पांश्च केचिदिच्छन्ति तन्मते ।
तस्मस्तस्मिन् विमानानां परिमाणं वदाम्यहम् ॥ १०-३६.
ति. प. में प्रथमतः आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्पोंके विमानोंकी संख्या क्रमसे ४४० और २६० बतलाकर आगे मतान्तरसे इन विमानोंकी संख्या इस प्रकार निर्दिष्ट की गई है-
Jain Education International
अहवा आणदजुगले चत्तारि संयाणि वरविमाणाणि ।
आरण-अच्च दकप्पे सयाणि तिण्णि च्चिय हुवंति ॥ ८-१८५.
इसी क्रम प्रस्तुत ग्रन्थमें भी प्रथमतः उनकी संख्या ४४० और २६० बतलाकर मतान्तरसे पुनः उसका उल्लेख उसी प्रकारसे किया गया है-
चतुःशतानि शुद्धानि आनत - प्राणतद्विके । आरणच्युतयुग्मे च त्रिशतान्यपरे विदुः ।। १०-४३.
१. ति. प. में इसके पूर्व (८,१६१-७५ ) १२ कल्पोंके आश्रयसे श्रेणीबद्ध, इन्द्रक और प्रकीर्णक विमानोंकी संख्याका उल्लेख कर देनेके पश्चात् ही उपर्युक्त गाथा द्वारा १६ कल्पोंकी मान्यतानुसार उस विमानसंख्या के वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की गई है और तदनुसार उसका पृथक् पृथक् वर्णन किया भी गया है। किन्तु सिंहसूरषिकी यह एक विशेषता रही है कि उन्होंने श्लोक १०, १७-१८ द्वारा संख्या निर्देशके विना १२ कल्पोंका निर्देश करके भी ति प के समान इन कल्पोंके आश्रित उन विमानोंकी संख्याका कोई उल्लेख नहीं किया, केवल श्लोक २१ के द्वारा उक्त विमानोंकी समुदित संख्याका ही निर्देश कर दिया है । इस प्रकार उन्होंने आगे १६ कल्पोंके मतभेदका उल्लेख करके तदनुसार जो पृथक् पृथक् विमानसंख्याका उल्लेख किया है उसे अप्रासंगिक ही समझना चाहिये । इसके अतिरिक्त सातवें और आठवें कल्पका उल्लेख जो उन्होंने महाशुक्र और सहस्रार ( १०- १८ ) के नामसे किया है उसका भी निर्वाह वे अन्त तक नहीं कर सके । उदाहरणार्थ- आगे ७४वें श्लोक में उन्होंने ७ वें कल्पका निर्देश शुक्र और ८वें कल्पका शतारयुगलके नामसे किया है । इसी प्रकार आगे भी ७७वें श्लोकमें इन दोनों कल्पोंका निर्देश क्रमशः शुक्र और शतारके नामसे ही किया है। इस पूर्वापर विरोधका कारण यह है कि इस विषयमें भी दो मत पाये जाते हैं- सर्वार्थसिद्धिकार १२ इन्द्रोंमें जहां ७वें इन्द्रका शुक्र और ८वेंका शतारके नामसे निर्देश करते हैं (४ - १९ ) वहां ति. प. के कर्ता उन्हीं दोनोंका निर्देश महाशुक्र और सहस्रार (८, १४३ - ४४) के नामसे करते हैं । ति. प. के कर्ता आगे भी सर्वत्र इन्हीं दोनों नामोंका उपयोग किया है। चौदह इन्द्रोंकी मान्यताको प्रधानता देनेवाले तत्वार्थवृत्तिकार भी जब मूल तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार १२ इन्द्रोंको स्वीकार करते हैं तब वे भी उक्त दोनोंका निर्देश सर्वार्थ सिद्धि के समान शुक्र और शतारके नामसे करके महाशुक्र और सहस्रारको दक्षिणेन्द्रानुवर्ती बतलाते हैं । (देखिये त. वा. पृ. २३३)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org