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________________ प्रस्तावना [ ३१ अतएव उक्त मतके अनुसार वही उ. ३५० ध. और ज. २३ हाथ होती है । यथा-- उत्कृष्ट ३४२=३५० ध; जवन्य ३३ हाथ =८४ अंगुल, ३४२=५६ अंगुल =२३ हाथ ।। ५) ति. प. में ८, ६३५-३९ गाथाओं द्वारा लोकविभागाचार्योंके मतानुसार लौकान्तिक देवोंकी प्ररूपणा अन्य प्रकारसे भी की गई है । इस मतके अनुसार ति. प. में जो पूर्वोत्तर (ईशान ) दिशादिके क्रमसे सारस्वतादि आठ प्रकारके लौकान्तिकोंका अवस्थान निर्दिष्ट किया गया है वह प्रायः उसी क्रमसे प्रस्तुत लोकविभागमें पाया जाता है, किन्तु उक्त मतके अनुसार ति. प. में जो उनकी संख्या निर्दिष्ट की गई है वह उस प्रकारसे यहां नहीं पायी जाती है । इस मतके अनुसार ति. प.(८-६३९; ८, ६२५-२६) में सारस्वत ७०७, आदित्य ७०७, तुषित ७०७, गर्दतोय ७०७, वह्नि ७००७, अरुण ७००७, अव्याबाध ११०११ और अरिष्ट ११०११ कहे गये हैं । परन्तु प्रस्तुत लो. वि. में उनकी संख्या इस प्रकारसे निर्दिष्ट की गई है- सारस्वत ७०७, आदित्य ७०७, तुषित ७०७, गर्दतोय ७०७, वह्नि १४०१४, अरुण १४०१४, अव्याबाध ९०९ और अरिष्ट ९०९ । यहां आग्नेय नामक लौकान्तिकोंका एक भेद पृथक् ही पाया जाता है । इसका उल्लेख ति. प. में कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। प्रस्तुत लो. वि. में उनका अवस्थान उत्तर दिशा में (१०-३१७) तथा संख्या उनकी ९०९ ( १०-३२० ) निर्दिष्ट की गई है। इसके अतिरिक्त यहां (१०-३१८)जो उनके प्रकीर्णक वृत्त विमान तथा अरिष्ट लौकान्तिकोंका आवलिकागत विमान निर्दिष्ट किया गया है उसका भी उल्लेख ति. प. में नहीं पाया जाता। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि श्री सिंहसूरर्षिने प्रस्तुत लोकविभागकी रचना तिलोयपण्णत्तीके आधारसे की है, इसे मैं सिद्ध करनेका प्रयत्न करता हूं। चूंकि प्रस्तुत ग्रन्थमें सिंहसुरषिके द्वारा वर्तमान तिलोयपण्णत्तीकी लगभग १२०-२५ गाथायें कहीं नामनिर्देशके साथ और कहीं विना नामनिर्देशके भी उद्धत की गई हैं, अतएव उन्होंने वर्तमान तिलोयपण्णत्तीका पर्याप्त परिशीलन किया था, इसमें किसीको सन्देह नहीं हो सकता है। अब उन्होंने इस तिलोयपण्णत्तीका प्रस्तुत ग्रन्थकी रचनामें कितना अधिक उपयोग किया है, इसके लिये मैं तुलनात्मक दृष्टि से २-४ उदाहरणोंको दे देना ठीक समझता हूं। तिलोयपण्णत्तीकी रचना अत्यन्त व्यवस्थित व प्रामाणिक है। उसके रचयिताके समक्ष जिस विषयका उपदेश नहीं रहा है, उसका उन्होंने यथास्थान उल्लेख कर दिया है । इसी प्रकार उनके सामने जिस विषयमें, जो भी मतभेद रहे हैं उनका भी उल्लेख उन्होंने यथास्थान ग्रन्थादिके नामनिर्देशपूर्वक या 'केई' आदि पदोंके द्वारा किया है । प्रस्तुत ग्रन्थमें श्री सिंहसूरषिने भी यत्र तत्र कुछ मतभेदोंका तदनुसार उल्लेख तो किया है, किन्तु नामनिर्देश कहीं भी नहीं किया। उपदेशके अभावका भी उल्लेख उन्होंने किया है, परन्तु वह तिलोयपण्णत्तीका अनुसरण मात्र है। उदाहरणार्थ- ति. प. में भवनवासी इन्द्रोंके प्रकीर्णक आदि देवोंकी संख्याके विषयमें यह कहा गया है-- होंति पयण्णयपहृदी जेत्तियमेत्ता य सयलइंदेखें। तप्परिमाणपरूवणउवएसो णस्थि कालवसा ॥३-८९. इसके छायानुवादके समान प्रस्तुत गन्थमें भी इस प्रकार कहा गया हैप्रकीर्णकाविसंख्यानं सर्वेष्विन्द्रेषु यद् भवेत्। तत्संख्यानोपदेशश्च नष्ट: कालवशादिह ॥७-५२. इसके आगे ति. प. में प्रकीर्णकादि तीन देवों और सर्वनिकृष्ट देवोंकी देवियों की संख्याके विषयमें यह कहा गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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