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________________ प्रस्तावना [ २९ उसके समर्थन में तिलोयपणत्तीकी जो गाथायें (४, २४७८-८८) दी गई हैं उनसे उक्त मतका समर्थन नहीं होता है, किन्तु वे उक्त मतके विरुद्ध ही पड़ती हैं। हां, उक्त तिलोयपण्णत्ती में ही आगे गा. २४९१-९९ द्वारा इस विषय में जो लोकविभागाचार्यका मत प्रदर्शित किया गया है इस मतसे वह प्रस्तुत ग्रन्थका वर्णन पूर्णतया मिलता है। इससे यह शंका हो सकती है कि प्रस्तुत लोकविभागके कर्ताके सामने वह प्राचीन लोकविभाग रहा है, इसीलिये उसके रचयिताने तदनुसार ही उन अन्तरद्वीपोंकी प्ररूपणा की है। परन्तु वह ठीक प्रतीत नहीं होती, क्योंकि, उस अवस्था में उन्हें इन गाथाओंको उद्धत ही नहीं करना चाहिये था। कारण यह कि उक्त लोकविभागाचार्यका वह मत तिलोयपण्णत्तीसे प्राचीन है। यदि उन गाथाओंको उद्धृत करना ही उन्हें अभीष्ट था तो वे अपने मतसे तिलोयपण्णत्तीके मतभेदको प्रगट करके उन्हें उद्धृत कर सकते थे । यथार्थ बात यह है कि श्री सिंहसूर ऋषिने तिलोयपण्णत्ती और त्रिलोकसार आदिका अनुसरण करके ही इस ग्रन्थकी रचना की है। इसलिये उनसे उपर्युक्त भूल ही हुई है। वस्तुतः उन्हें तिलोयपण्णत्तीके पूर्व मतको अपनाकर उन गाथाओंको उद्धृत करना चाहिये था। परन्तु वे सम्भवतः ति. प. के कर्ता द्वारा आगे प्रदर्शित उस लोकविभागाचार्यके अभिमतको ‘लोकविभाग' इस नामके व्यामोहसे नहीं छोड़ सके। १) यहां तिलोयपण्णत्तीमें अन्यत्र भी जो लोकविभागके मतोंका उल्लेख किया है उनका भी विचार कर लेना ठीक होगा । सर्वप्रथम ति. प. के प्रथम अधिकार गा. २८१ में लोकविभागके मतका उल्लेख करते हुए तीनों वातवलयोंका बाहल्य क्रमसे १३, ११ और ११३ = ३३ कोस निर्दिष्ट किया गया है । यह मत प्रस्तुत लोकविभागमें नहीं पाया जाता है । किंतु वहां ति. प. के ही समान उनका बाहल्य क्रमसे २ कोस, १ कोस और १५७५ धनुष मात्र बतलाया गया है । दोनोंकी वह समानता भी दर्शनीय है । यथा--- कोसदुगमेक्ककोसं किंचूणेक्कं च लोयसिहरम्मि। ऊणपमाणं दंडा चउस्सया पंचवीसजुदा ॥ ति. प. १-२७३. लोकाग्रे कोशयुग्मं तु गव्यूतियूनगोरुतम् । न्यनप्रमाणं धनुषां पंचविंश-चतुःशतम् ॥ लो. वि. ८-१४. २) चतुर्थ महाधिकारमें गा. २४४५-४८ द्वारा संगाइणी और लोकविभागके अनुसार लवण समुद्रकी ऊंचाई पृथिवीतलसे ऊपर आकाशमें अवस्थितरूपसे ११००० यो. निर्दिष्ट की गई है । इसके ऊपर शुक्ल पक्षमें क्रमशः ५००० यो. की वृद्धि होकर पूर्णिमाके दिन वह ऊंचाई १६००० यो. प्रमाण हो जाती है तथा कृष्ण पक्षमें वह उसी क्रमसे घटकर अमावस्याके दिन ११००० यो. मात्र ही रह जाती है । इतनी ऊंचाई उसकी सदा ही रहती हैइससे कम ऊंचाई कभी नहीं होती। विस्तार उसका जलशिखरपर १०००० यो. मात्र कहा गया है । यह मत प्रस्तुत लो. वि. में पाया जाता है । परन्तु जिस रूपमें यहाँ श्लोकोंकी रचना की गई है उस रूपमें वह अभिप्राय सहसा अवगत नहीं होता। जैसे-- दशैवैष सहस्राणि मूलेऽग्रेऽपि पृथुर्मतः । सहस्रमवगाढो गामूवं स्यात् षोडशोच्छितः ॥२-३. यहां उसकी ऊंचाई १६००० यो. निर्दिष्ट की गई है । यह अवस्थित ऊंचाई नहीं है, किंतु पूर्णिमाके दिन रहनेवाली ऊंचाई है जिसको कि यहां स्पष्ट नहीं किया गया है। इसके आगे यहां यह श्लोक प्राप्त होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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