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________________ २८] लोकविभागः भी ‘लोयविभाएसु णादव्वं' इस प्रकारसे 'लोकविभाग' का जो निर्देश किया गया है उससे सम्भवतः किसी ग्रन्थविशेषका उल्लेख किया गया नहीं प्रतीत होता है । किन्तु 'लोयविभाएसु' इस बहुवचनान्त पदको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वहाँ नियमसारके कर्ता दो प्रकारके मनुष्यों, सात प्रकारके नारकियों, चौदह प्रकारके तिर्यंचों और चार प्रकारके देवोंके विस्तारको क्रमशः मनुष्यलोक, नारकलोक, तिर्यग्लोक तथा व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक और कल्पवासिलोक आदि उन उन लोकविभागोंके वर्णनोंमें देखना चाहिये ; यह भाव प्रदर्शित कर रहे हैं । ९. लोकविभाग व तिलोयपण्णत्ती इसी ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित वर्तमान तिलोयपण्णत्तीमें अनेक वार 'लोयविभाय (लोकविभाग)' का उल्लेख हुआ है३ । अनेक विद्वानोंका विचार है कि यह वही लोक विभाग है कि जिसे सर्वनन्दीने शक सं. ३८० में रचा है और जिसकी प्राकृत भाषाका संस्कृत भाषामें छायानुवादरूप यह वर्तमान लोकविभाग है । परन्तु मैं यह ऊपर बतला चुका हूं कि प्रस्तुत लोकविभागकी जिस प्रशस्तिपरसे उपयुक्त अभिप्राय निकाला जाता है वह वस्तुतः उस प्रशस्तिसे निकलता नहीं है। उससे तो केवल इतना मात्र ज्ञात होता है कि शक सं. ३८० में सर्वनन्दीके द्वारा कोई एक शास्त्र रचा गया था जो लोकविषयक हो सकता है । तिलोयपण्णत्तीके कर्ताके समक्ष लोकविषयक अनेक ग्रन्थ रहे हैं, जिनमें एक लोकविभाग भी है और वह वर्तमानमें उपलब्ध नहीं है । वह सम्भवतः प्राकृत भाषामय ही रहा है । परन्तु वह किसके द्वारा विरचित है, इसका निर्देश ति. प. में नहीं किया गया है। वहाँ उसका उल्लेख लोकविभाग और लोकविभागाचार्य (४-२४९१, ७-११५) के रूपमें ही उपलब्ध होता है। वह लोकविभाग प्रस्तुत लोकविभागके रचयिताके स मने नहीं रहा, यह निश्चित-सा प्रतीत होता है । इसका कारण यह है कि यदि उनके सामने उक्त लोकविभाग रहा होता तो वे उसके मत को सिद्धान्तरूपमें उपस्थित करके तत्पश्चात् मतान्तरोंका उल्लेख करते । परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, किन्तु विवक्षित विषयका स्वरुचिसे वर्णन करके उसके समर्थन में तिलोयपण्णत्ती आदिके अवतरणोंको उद्धृत किया है। इस कार्य में कहीं कहीं विपरीतता भी हो गई है। जैसे -- यहाँ द्वितीय विभागमें ३३-४४ श्लोकों द्वारा अन्तरद्वीपोंका वर्णन करके आगे १. देखिये 'पुरातन जैन वाक्यसूची' की प्रस्तावना पृ. ३६. २. इस प्रकारके अधिकार तिलोयपण्णत्ती में उपलब्ध होते हैं और वहां उक्त जीवभेदोंका विस्तार भी देखा जाता है। देखिये ति. प. २. प्रस्तावना पृ. २० आदि। ३. ति. प. १-२८१, ४-२४४८, २४९१, ७-११५ और ९-९. इनमें गा. ४-२४४८ में 'संगाइणिए लोयविभाए' तथा ९ -- ९ में 'लोर्यावणिच्छयगंथे लोयविभागम्मि' ऐसा निर्देश पाया जाता है। इससे सम्भवतः पृथक पृथक् २-२ ग्रन्थोंका-संगायणी व लोकविभाग तथा लोकविनिश्चय व लोक विभागका- उल्लेख किया गया प्रतीत होता है। ४. जैन साहित्य और इतिहास पृ. १-२. और पुरातन जैन वाक्यसूचीकी प्रस्तावना पृ. ३१-३२. ५. जैसे - सग्गायणि (४ - २१७, २०२९, २४४८, ८-२७२, संगोयणि ( ४-२१९), लोयविणिच्छय (४-१८६६, १९७५, २ २८, ५-६९, १२९, १६७,८- २७०, ३८६, ९-९), संगाणिय (८-३८७), लोगाइणि (२४४४) और लोगविणिच्छय मन्गायणि (४-१९८२) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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