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________________ प्रस्तावना [२७ उसी रूपसे न करके उक्त वातवलयोंका विस्तार भिन्न (२ को., १ को. और १५७५ धनुष) क्यों निर्दिष्ट किया' ३. त्रिलोक प्रज्ञप्ति (४, २४४५.४८ ) में लोकविभागके अनुसार लवणसमुद्रकी ऊंचाई पथिवीतलसे ऊपर आकाश में ११००० यो. मात्र अवस्थित स्वरूपसे निर्दिष्ट की गई है। वह शुक्ल पक्षमें क्रमशः वृद्धिको प्राप्त होकर पूर्णिमा के दिन १६००० यो. प्रमाण हो जाती है। पश्चात् कृष्णपक्षमें उसी क्रमसे हानिको प्राप्त होकर पुनः वह ११००० यो. मात्र रह जाती है। लोकविभागके इस अभिप्रायको सिंहसूरषिने उसी क्रमसे क्यों नहीं निर्दिष्ट किया ? ४. त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें लोकविभागाचार्यके मतानुसार जो सर्व ज्योतिषियोंके नगरोंका बाहल्य उनके विस्तारके बराबर कहा गया है। उसका उल्लेख सिंहसूरषिने प्रस्तुत ग्रन्थमें कहीं भी क्यों नहीं किया? ५. त्रिलोकप्रज्ञप्ति (४, ६३५-३९) में लोकविभागाचार्यके मतानुसार जो वह्नि, अरुण, अव्याबाध और अरिष्ट इन चार लौकान्तिक देवोंकी क्रमशः ७००७, ७००७, ११०११ और ११०११ संख्या कही गई है। उसके स्थानमें यहाँ उनकी वह संख्या भिन्न (१४०१४, १४०१४, ९०९, ९०९) क्यों कही गई है ? साथ ही उक्त आचार्य के मतानुसार त्रि. प्र. में जब आग्नेय नामक लौकान्तिक देवोंका कोई भेद नहीं देखा जाता है तब उसका उल्लेख यहाँ (१०-३१७ व ३२०) कैसे किया गया है ? ६. प्रस्तुत लोकविभागके ५वें विभागमें श्लोक ३८ से १३७ तक जो १४ कुल. करोंको प्ररूपणा आदिपुराणके पूर्ण श्लोकों व श्लोकांशोंके द्वारा की गई है। वह उसी प्रकारसे क्या सर्वनन्दि-विरचित उस लोकविभागमें भी सम्भव है ? इन प्रश्नों का जब तक समाधान प्राप्त नहीं होता है तब तक यह निश्चित नहीं कहा जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थके रूपमें श्री सिंहसूर्षिने उस लोकविभागका अनुवाद किया है जो तिलोयपण्णत्तिकारके समक्ष विद्यमान था तथा जिसकी रचना सर्वनन्दीके द्वारा की गई थी। इसके अतिरिक्त यह भी एक विचारणीय प्रश्न है कि यदि सिंहसूरषिने सर्वनन्दीके शास्त्रका - लोकविभागका - अनुवाद ही किया है तो प्रशस्तिमें 'आचार्यावलिकागतं विरचितं तत् सिंहसूरर्षिणा' ऐसा उल्लेख न करके उसके स्थानमें 'आचार्यपरम्परासे प्राप्त उसकी रचना पूर्वमें -- शक सं. ३८० में -- श्री मुनि सर्वनन्दीने की थी और तत्पश्चात् भाषापरिवर्तन द्वारा उसीकी रचना सिंहसूरपिने की है' इस प्रकार के अभिप्रायको स्पष्टतया क्यों नहीं व्यक्त किया ? तिलोयपण्णत्तीके समान श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित नियमसारकी १७वीं गाथामें १. लो. वि. ८- १४ व ११-५. २. लो. वि. २-३ व २-७. ३. जोइग्गणणयरीण सव्वाणं रुंदमाणसारिच्छं । बहलत्तं मण्णते लोगविभायस्स आइरिया ॥७-११५. ४. ति. प. ८-६३९ व ८, ६२५-२६. ५. लो. वि. १०, ३२०-२१. ६. देखिये आगे ' लोकविभाग व आदिपुराण' शीर्षक (पृ. ३४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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