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लोकविभाग: __ आगे इसी प्रशस्तिमें शास्त्रका संग्रह जो अनुष्टुप् छन्दसे १५३६ श्लोक प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है वह प्रस्तुत लोकविभागका है या उस सर्वनन्दि-विरचित शास्त्रका, इसका कुछ निश्चय नहीं होता । प्रस्तुत ग्रन्थकी मूल श्लोकसंख्या १७३७ है, जिसमें १२ वृत्त अन्य भी संमिलित हैं ( देखिये पीछे पृ. १०) । इसके अतिरिक्त १७७ पद्य यहाँ तिलोयपण्णत्ती आदि अन्य ग्रन्थोंके भी उद्धृत किये गये हैं । इस प्रकार इन उद्धृत पद्योंको छोड़कर यदि मूल ग्रन्थके ही १७३७ श्लोकोंमेंसे १२ अन्य उपजाति आदि वृत्तोंको तथा आदिपुराणके भी लगभग ९९(१०७-८-- ) श्लोकोंको छोड़ दिया जाय तो भी १६२६ अनुष्टुप् वृत्त मूल ग्रन्थके ही शेष रहते हैं जो उस निर्दिष्ट १५३६ संख्याकी अपेक्षा ९० अनुष्टुप् वृत्तोंसे अधिक होते हैं। इससे उस निर्दिष्ट संख्याकी संगति प्रस्तुत ग्रन्थके प्रमाणके साथ नहीं बैटती है ।
प्रशस्तिके उस श्लोकमें जो 'इदं' पदका प्रयोग किया गया है उससे यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थके ही प्रमाणका निर्देश किया गया प्रतीत होता है, फिर भी चूंकि यह श्लोक सर्वनन्दिविरचित उस शास्त्रके समयादिका निर्देश करनेके पश्चात् उपलब्ध होता है, अत एव वह सन्दिग्ध ही बना रहता है। इसके अतिरिक्त व्याकरणके अनुसार उक्त पदकी संगति भी ठीकसे नहीं बैठती ।
एक विचारणीय प्रश्न यहाँ यह भी उपस्थित होता है कि प्रस्तुत लोकविभागके कर्ताने जब उसमें त्रिलोकप्रज्ञप्ति, आदिपुराण (आर्ष), त्रिलोकसार और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिका नामनिर्देश करके उनके अनेकों उद्धरण दिये हैं तब क्या कारण है जो उन्होंने इतने सुपरिचित उस सर्वनन्दि-विरचित शास्त्रके कोई उद्धरण नहीं दिये । इस प्रश्नके उत्तरमें यदि यह कहा जाय कि प्रस्तुत ग्रन्थकार जब उक्त सर्वनन्दि-विरचित शास्त्रका भाषापरिवर्तन पूर्वक अनुवाद कर रहे हैं तब यहाँ उसके उद्धरण देने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है, तो इसपर निम्न अन्य प्रश्न उपस्थित होते हैं जिनका कुछ उत्तर नहीं मिलता --
- १. यदि सिंहसूरपिने सर्वनन्दीके लोकविभागका यह अनुवाद मात्र किया है तो उन्होंने विवक्षित विषयके समर्थनमें उससे अर्वाचीन त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों के यहाँ उद्धरण क्यों दिये तथा इस प्रकारसे उसकी मौलिकता कैसे सुरक्षित रह सकती है ?
२. त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें लोकविभागके अनुसार लोकके ऊपर तीन वातावलयोंका विस्तार क्रमसे १३, ११ और १३३ कोस निर्दिष्ट किया गया है । उसका अनुवाद सिंहसूर ऋषिने
१. आराकी प्रतिमें समस्त पत्रसंख्या ७० हैं (७० वां पत्र दूसरी ओर कोरा है) । प्रत्येक पत्र में दोनों ओर १३-१३ पंक्तियां और प्रत्येक पंक्तिमें लगभग ३६-४० अक्षर हैं। इस प्रकार उसके आधारसे ग्रन्थका प्रमाण लगभग २१४१ श्लोक प्रमाण ठहरता है।
२. पञ्चादश शतान्याहुः षटत्रिशदधिकानि वै । शास्त्रस्य संग्रहस्त्वेदं छन्दसानुष्टुभेन च ।।११-५४.
३. उस श्लोकमें 'शास्त्रस्य संग्रहस्त्वेदं' ऐसा कहा गया है। यहां 'तु + इद - त्वेद' इस प्रकारको जो सन्धि की गई है वह व्याकरणके नियमानुसार अशुद्ध है, उसका शुद्ध रूप 'त्विदं' ऐसा होगा। दूसरे, पुल्लिग 'संग्रहः' का 'इदं' यह नपुंसकलिंग विशेषण भी योग्य नहीं है। तीसरे, 'आहुः' इस क्रियापदका सम्बन्ध भी वहां ठीक नहीं बैठता। चौथे, अनुष्टुभेन' यह तृतीयान्त पद भी अशुद्ध है। इसके अतिरिक्त 'पञ्चादश' पद भी अशुद्ध ही है। इस प्रकारसे वह पूरा श्लोक ही अशुद्ध व असम्बद्ध प्रतीत होता है। ४. दो-छब्बारसभागब्भहिओ कोसो कमेण वाउघणं । लोय उवरिम्मि एवं लोयविभायम्मि पण्णत्तं ॥१-२८१.
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