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________________ : प्रस्तावना [२५ है । इससे त्रिलोकसारके कर्ताके सामने तिलोयपण्णत्ती रही है व उसका उन्होंने पर्याप्त उपयोग भी किया है, यह निश्चित प्रतीत होता है । जंबूदीवपण्णत्ती में ऐसी कितनी ही गाथायें हैं जो त्रिलोकसारमें उसी रूपसे या कुछ थोड़े-से परिवर्तित रूपसे उपलब्ध होती | उसकी रचनाशैली कुछ शिथिल भी प्रतीत होती है । इससे अनुमान होता है कि उसकी रचना त्रिलोकसारके पश्चात् हुई है । ग्रन्थके अन्तमें ग्रन्थकारने यह संकेत भी किया है कि जंबूद्वीपसे सम्बद्ध अर्थका विवेचन प्रथमतः जिनेन्द्र और तत्पश्चात् गणधर देवने किया है। फिर आचार्यपरम्परासे प्राप्त उस ग्रन्थार्थका उपसंहार करके मैंने उसे संक्षेप में लिखा है । इस आचार्य परम्परासे कदाचित् उनका अभिप्राय आचार्य यतिवृषभादिका रहा हो तो यह असम्भव नहीं कहा जा सकता है । कुछ भी हो उसकी रचना विक्रमकी ११वीं शताब्दिके पूर्व में हुई प्रतीत नहीं होती । २ अब चूंकि लोकविभाग (पृ. ६७ ) में ' उक्तं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ ' इस प्रकार नामनिर्देशपूर्वक उसकी एक गाथा उद्धृत की गई है, अत एव उसकी रचना जंबूदीवपण्णत्तीके पश्चात् हुई है; इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं रहता । अब यह देखना है कि वह जंबूदीवपण्णत्तीके कितने समय बाद रचा जा सकता है। इसके लिये हमने अन्य ग्रन्थोंमें उसके उद्धरणोंके खोजने का प्रयत्न किया, परन्तु वे हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं हो सके । श्री श्रुतसागर सूरिने अपनी तत्त्वार्थवृत्ति में हरिवंशपुराण और त्रिलोकसार आदिके साथ एक अन्य भौगोलिक ग्रन्थके अनेकों श्लोक उद्धृत किये हैं । परन्तु उन्होंने कहीं भी प्रस्तुत ग्रन्थके किसी श्लोकको उद्धृत नहीं किया। कहा नहीं जा सकता कि उस समय तक प्रस्तुत ग्रन्थकी रचना ही नहीं हुई थी, या वह उनके सामने नहीं रहा, अथवा उसके श्लोकोंको उद्धृत करना उन्हें अभीष्ट नहीं रहा । 3 ८. क्या सर्वनन्दिकृत कोई लोकविभाग रहा है ? प्रस्तुत ग्रन्थके अन्त में ( ११, ५२-५३ ) यह सूचना की गई है कि पूर्व समय में पाणराष्ट्र के अन्तर्गत पाटलिक नामके ग्राम में सर्वनन्दी मुनिने शास्त्र लिखा था, जो कांचीके राजा सिंहवर्मा २२वें वर्ष में शक संवत् ३८० (वि. सं ५१५ ) में पूर्ण हुआ । परन्तु यहाँ यह निर्देश नहीं किया गया है कि उस शास्त्रका नाम क्या था तथा वह संस्कृत अथवा प्राकृत भाषा में से किस भाषा में लिखा गया था। आज वह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं दिखता। जैसा कि इस प्रशस्ति में निर्दिष्ट है, उससे उक्त शास्त्रका नाम ' लोकविभाग' ही रहा हो, ऐसा सिद्ध नहीं होता । सम्भव है उसका कुछ अन्य ही नाम रहा हो और वह कदाचित् संस्कृतमें रचा गया हो । १. देखिये जंबूदीवपण्णत्तीकी प्रस्तावना पृ. १२८-२९. २. जंबूदीवपण्णत्ती १३, १३५ -१४२. ३. त. वृ. ३- १०. ४. त. वृ. ३ - ६, ३८, ४-१३, १५. त. वृ. ३ - १० (सा. ध. ५. ६. देखिये त. वृ. ३- १, Jain Education International २, २-६८ ) ; ४-१२ ( जं. दी. प. ९२-९३ ) . ३, ५, ६, १०, २७; ४-२४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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