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लोकविभाग : और कहीं विना उल्लेखके भी उद्धृत किया है । इसके अतिरिक्त जैसा कि आप आगे देखेंगे, उन्होंने हरिवंशपुराणके भी अनेकों श्लोकोंको ग्रन्थोल्लेखके विना इस ग्रन्थके अन्तर्गत कर लिया है।
प्रस्तुत ग्रन्थके ११वें विभागमें पृ. २२४ पर 'उक्तं च त्रयम् ' कहकर जो ३ गाथायें उद्धृत की गई हैं उनमें प्रथम २ गाथायें स्वामि-कुमार द्वारा विरचित स्वामि-कातिकेयानुप्रेक्षामें उपलब्ध होती हैं । स्वामि-कुमारका समय श्री. डॉ. ए. एन्. उपाध्येजीके द्वारा श्री. नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके पश्चात् और ब्रह्मदेवके पूर्व, अर्थात् ईसाकी १०वीं और १३वीं शताब्दिके मध्यका, अनुमानित किया गया है । इससे इतना मात्र कहा जा सकता है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षासे उन २ गाथाओंको प्रस्तुत ग्रन्थमें उद्धृत करनेवाले श्री सिंहसूर्षि स्वामि-कुमारके पश्चात् हुए हैं। परन्तु उनके पश्चात् वे किस समयमें,हुए हैं, इसके सम्बन्धमें सामग्री के विना निश्चित कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । एक गाथा जंबूदीवपण्णत्ती (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) की भी यहाँ नामनिर्देशके साथ उद्धृत पायी जाती है (देखिये पृ. ६७) । इससे उनके समयकी पूर्वावधिका कुछ निश्चय होता है। उक्त तीन ग्रन्थों में त्रिलोकसारका रचनाकाल प्रायः निश्चित है । वह चामुण्डरायके समसमयवर्ती आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके द्वारा विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दिके पूर्वार्धमें रचा गया है।
तिलोयपण्णत्तीका रचनाकाल यद्यपि निश्चित नहीं है, फिर भी उसकी रचना त्रिलोकसारके पूर्व हो गई निश्चित प्रतीत होती है । इन दोनों ग्रन्थोंकी विषयवर्णन पद्धति प्रायः समान है। विशेषता यह है कि तिलोयपण्णत्ती में जहाँ किसी भी विषयका विस्तारसे वर्णन किया गया है वहाँ वह त्रिलोकसारमें संक्षेपसे, किन्तु फिर भी स्पष्टतासे किया गया है। वैसे तो त्रिलोकसारमें ऐसी पचासों गाथायें पायी जाती हैं जो तिलोयपण्णत्तीसे मिलती-जुलती ही नहीं, बल्कि कुछ गाथायें तो उसी रूप में ही वहाँ उपलब्ध होती हैं। इससे यद्यपि उन दोनोंकी पूर्वापरताका निश्चय सहसा नहीं किया जा सकता है, फिर भी एक गाथा ऐसी है जो त्रिलोकसारके तिलोयपण्णत्तीसे पीछे रचे जानेमें सहायक होती है। वह गाथा यह है --
केसरिमुहसुदिजिब्भादिठी भूसीसपहदि गोसरिसा।
तेणिह पणालिया सा वसहायारे ति णिहिट्ठा । त्रि. ५८५. इस गाथामें जिस प्रणालिकाको वृषभाकार निर्दिष्ट करके भी जिस रूपमें यहाँ उसके मुख, कान, जिह्वा और नेत्रोंको सिंहके आकार बतलाया गया है उस रूपमें यह वर्णन अस्वाभाविक व विकृत-सा हो जाता है । यथार्थ बात यह है कि त्रिलोकसारके कर्ताके सामने जो तिलोयपण्णत्तीकी 'सिंग-मुह-कण्ण-जीहा-लोयण-भूआदिएहि गोसरिसो' आदि गाथा (४-२१५) रही है उसका पाठ कुछ भ्रष्ट होकर · सिंघमुह-' आदिके रूप में रहा है। इससे सिंहकी भ्रान्ति हो जानेसे उन्होंने वहाँ सिंहके समानार्थक · केसरि' शब्दका प्रयोग कर दिया
१. देखिये श्रीमद् राजचन्द्र शास्त्रमाला द्वारा प्रकाशित (ई. स. १९६०) स्वामि-कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी प्रस्तावना पृ. ६७-६९.
२. उदाहरणार्थ ति. प. में इन्द्रक नारक-बिलोंके विस्तारका वर्णन जहां ५२ (२, १०५-५६) गाथाओं द्वारा किया गया है वहां त्रि. सा. में वह वर्णन एक ही गाथा (१६९) द्वारा कर दिया गया है।
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