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________________ प्रस्तावना [२३ ताडनतोदनैः' (८-१०९), 'यथा हरिणी वृषाः' (८-१२८), 'कुमार्गगतचरित्राः' (८-१२३), 'सहस्रारतोऽधिका:' (८-८२), 'स्थावरानपि चशानात् परतो यान्ति मानुषान्' (१०-८९), 'महिषमीनवत् (१०-९१), 'शते सार्धे च' (१०-१७३), 'शतद्वयं पुनः सार्धं' (१०-१७७) 'शाक्रयोः सोमयमयोः' (१०-२१३), 'अच्युतात्तु' (१०-२२२), 'उत्कृष्टमायुर्देवानां पूर्व साधिकमल्पकम्' (१०-२३२), 'कल्पराजाहमिन्द्राणाम्' (१०-२३६), 'पल्यान्यर्धद्वयं चैव सेनान्यात्माभिरक्षिणाम्' (१०-२३७), 'क्रोशतत्पाददीर्घकः । व्यासाश्च' (१०-२५८), ‘शतार्धायामविस्तीर्णाः' (१०-२६४), 'देवराजबहिःपुरात्' (१०-२६८), 'स्थितिरेवं गणिकानां ज्ञेया कन्दर्पा अपि चाद्ययोः' (१०-२८२), 'शरीरस्पर्शरूपक: शब्दचित्तप्रवीचाराः' (१०-२८४), 'पूर्वप्राप्तविजानता' (१०-३२८), 'धर्मास्तिकायतन्मात्रं गत्वा न परतो गताः' (११-८,), 'भक्तमृद्धि . . . . सर्वभावि च जानानाः .... सुखायन्ते' (११-१३); इत्यादि । यहां श्लोकोंके मध्यमें सम्भवतः छन्दकी दृष्टिसे पदोंके मध्यमें सन्धि नहीं की गई है। जैसे- नाम्ना अग्निवाहनः (७-३०), भवनस्थानानि अर्हदायतनानि (७-८५), च अयुतानि (८-५६), त्रिकोणाश्च ऐन्द्रका: (८-७२), संज्ञाश्च अन्ये (९-२), समुद्रेषु असंख्येयेषु (९-१५), चत्वारि इन्द्रकाणि (१०-३०), च असंख्येया (१०-५६), यान्ति उत्कृष्टा (१०-८३), चैव अष्टानां (१०-११७), सहस्राणि अशीति (१०-१५०), च अग्रा (१०-१८५), क्रमेणैते ईशाना (१०-१८७), चैव अर्हदा (१०-२६३)- साधं इन्द्राः ; इत्यादि । इ और उ के आगे किसी स्वरके रहनेपर इ के स्थानमें य् और उ के स्थानमें व् हो जाता है, यह एक सामान्य नियम है । परन्तु जैनेन्द्र महावृत्ति (पृ. २३ ) में इस सम्बन्ध में एक अन्य मतका भी उल्लेख पाया जाता है। यथा -- भूवादीनां वकारोऽयं लक्षणार्थः प्रयुज्यते । इको यग्भिर्व्यवधानमेकेषामिति संग्रहाः ॥ १,२,१. तदनुसार उक्त य् और व्, इ और उ के स्थानमें न होकर उनके आगे हआ करते हैं। इस मतका अनुसरण कहीं कहीं प्रस्तुत ग्रन्थमें किया गया है। जैसे- वेश्मानि यादरा (१-१३३), सहस्राणि यात्मरक्षाः (१-३६९), तु वशोकाख्यसुरस्य (१-३८१), सहस्राणि यमवास्याम् (२-७), षष्ठी युपिण्याम् (५-१७६), तु वनु दिशानुत्तरे (१०-३०२); इत्यादि। ७. ग्रन्थरचनाका काल ___ जैसा कि अन्तिम प्रशस्तिमें निर्दिष्ट किया गया है तदनुसार प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता सिंह. सूरर्षि (सिंहसूर ऋषि) हैं। उन्होंने इस प्रशस्तिमें अपने नाम मात्रका ही निर्देश किया है, इससे अधिक और कुछ भी अपना परिचय नहीं दिया। इसलिये वे किस परम्पराके थे तथा मुनि थे या भट्टारक, इत्यादि बातोंका निर्णय करना अशक्य है। हां, यह अवश्य है कि इस ग्रन्थमें उन्होंने तिलोयपण्णत्ती, आदिपुराण और त्रिलोकसारके अनेक पद्योंको कहीं ग्रन्थनामोल्लेखके साथ १. जैनेन्द्र श२।१ और अष्टाध्यायी ६।११७७. २. देखिये पृ. ३३-३४, ४२-४३, ६७, ७३ और ८७ आदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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