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________________ २२] लोकविभागः कक्षाओको अपने सामानिक देवोंके बराबर और द्वितीयादि कक्षाओंको उत्तरोत्तर उनसे दूना दूना निदिष्ट किया गया है । इस प्रकारसे यहां प्रथम इन्द्रका उल्लेख न करके 'शेषाणां' पदके द्वारा अवशिष्ट इन्द्रोंका ग्रहण करना उचित नहीं कहा जा सकता है । दूसरे, जब यह एक सामान्य नियम है कि प्रत्येक इन्द्रकी सातों अनीकोंकी प्रथम कक्षाओंका प्रमाण अपने अपने सामानिक देवोंके बरावर ही हुआ करता है तब उक्त दोनों श्लोक (१८९-९०)ही व्यर्थ सिद्ध होते हैं। कारण कि उक्त अर्थकी सिद्धि एक मात्र १९१वें श्लोकसे हो सकती थी। केवल वहां ‘शेषाणां' के स्थानमें 'इन्द्राणां' जैसे किसी अन्य पदकी अपेक्षा थी। इसी प्रकार आगे श्लोक. १९९ में भी सौधर्म व ईशान इन्द्रोंका उल्लेख न करके ही आगे २००वें श्लोकमें 'परयोः' पदके द्वारा सनत्कुमार और माहेन्द्र इन्द्रोंको ग्रहण किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में कुछ प्रयोग कोश व व्याकरणके विरुद्ध भी दिखते हैं । उदाहरणके लिये 'विस्तार' शब्द पुल्लिग माना जाता है। परन्तु उसका प्रयोग यहां नपुंसकलिंगमें भी देखा जाता है । सत्तरह संख्याके लिये ‘सप्तदश' शब्दका प्रयोग देखने में आता है। परन्तु यहां वह 'सप्तादश' के रूप में प्रयुक्त हुआ है । श्लोक १०-१०५ में अतिक्रमण करके' या ‘जा करके' इस अर्थमें 'व्यतिपत्य' और श्लोक १०-१४२ में 'ऊपर जाकर' इस अर्थमें 'उत्पद्य' पदका उपयोग किया गया है । श्लोक १०-४५ में 'विमानगणना इमे' ऐसा प्रयोग देखा जाता है जब कि ‘गणना' शब्द स्त्रीलिंग और 'इमे' यह बहुवचनान्त पुल्लिग है। इसी प्रकार · इति' के पश्चात् यदि 'क्त' प्रत्ययान्त कृदन्त पदका प्रयोग किया जाता है तो वह एकवचनान्त नपुंसकलिंगमें किया जाता है। परन्तु यहां 'इति' का उपयोग करके भी उसका प्रयोग कर्मपदगत लिंग व वचनके अनुसार किया गया है। जैसे- भवन्तीति निश्चिता (७-५०), अष्टानामिति वणिताः (१०-११७), देवीनामिति वणिताः (१०-१४७), तावन्त्य इति भाषिताः (१०-२००) इत्यादि। इनके अतिरिक्त शब्द व समास आदिकी दृष्टि से निम्न प्रयोग भी यहां विचारणीय है-'राजाङगणं ततिः' (१-३५१), 'प्रासादा जातजातास्ते' (१-३५५),एकयोजनगते (३-२२), 'बाहिरस्त्रिकु संस्थानाः' (८-७४), 'सुमेघ[घा]नामा च' (७-५४), 'वधबन्धनबाधाभिश्छिद (?) १. इसी प्रकार इसके पूर्व श्लोक १६२ में सौधर्म इन्द्रकी अग्रदेवियोंके नामोंका उल्लेख किया गया है, परन्तु उक्त इन्द्रका वोधक वहां कोई भी शब्द नहीं दिया गया है। फिर भी तत्पश्चात् श्लोक १७८ में यह कह दिया है-सौधर्मदेवीनामानि दक्षिणेन्द्राग्रयोषिताम् । श्लोक १८५ में सौधर्म इन्द्रके नामोल्लेखके. विना उसके सेनाप्रमुखोंके नामोंका निर्देश किया गया है। इस प्रकारसे उसके नामनिर्देशके विना उनका सम्बन्ध आगे श्लोक १८७ में निर्दिष्ट ईशान इन्द्रके साथ जुड़ जाता है। २. श्लोक ८-७१. श्लोक ६-११८, १२४ व १२७ आदि । श्लोक ६-१२४ में १७३ संख्याके लिये त्रिसप्ततिशत' और शोक ६-१२६ में १७२ संख्याके लिये 'द्विसप्ततिशत' जैसे पदोंका प्रयोग किया गया है, जिनसे ऋगया: ७०० और ७२०० संख्याओंको ग्रहण किया जा सकता है। इसी प्रकार यहां ५० के लिये 'पञ्चासत (१०-१००, १२१ व १३०), ३५ के लिये 'पञ्चत्रिशतं' (१०-१३१) और ३० के लिये 'त्रिशतं' (१०-१३२), जैसे पदोंका प्रयोग किया गया है जब कि पंक्तिविशति-त्रिशच्चत्वारिंशत्पञ्चाशत-' इत्यादि सूत्र (अप्टा. ५।११५९) के अनुसार 'पञ्चाशत्', 'पञ्चत्रिंशत्' व 'त्रिंशत् रूप शुद्ध माने गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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