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________________ २२२) लोकविभागः [११.२६प्रतीकारसुखं जानंस्तथा यत्र क्वचिद्रतिम् । निर्व्याधि स्वस्यमासीनं स मन्ये दुःखितं वदेत ॥ २६ २कोटिकादंशदुःखज्ञः अनुमानेन बुध्यते । शार्दूलबलवद्दष्ट्राक्षोदने वेदनामुरुम् ॥ २७ अल्पपापक्षयादाप्तं सुखं ज्ञात्वा सचेतनः । सर्वकर्मक्षयोत्पन्नं सुखं सिद्धस्य बुध्यते ॥ २८ व्याधिभिर्युगपत्सर्वैः संभवद्भिविबाधितः । एकैकस्य शमे शान्ति सर्वेषां च यथाप्नुयात् ॥ २९ एककस्येह पापस्य नाशे चेदश्नुते सुखम् । 'दुष्कृतं निखिलं दग्ध्वा सुखी सिद्धो न किं भवेत्॥३० पराराधनदेन्योनः कांक्षा-कम्पन-निःसृतः । "लब्धनाशभयातीतो गतो हीनावमानतः ॥ ३१ अज्ञानतिमिरापूर्णां पापकर्मबृहद्गुहाम् । चिरमध्युष्य निष्क्रान्तो ज्ञानं सकलमाप्तवान् ॥३२ लभते यत्सुखं ज्ञानात् सिद्धस्त्रकाल्यतत्त्ववित् । उपमा तस्य सौख्यस्य मृग्यमाणा न दृश्यते ॥ ३३ श्लोकमेकं विजानानः शास्त्रं ग्रन्थार्थतोऽपि च । ह्लादते मानुषस्तीवं किं पुनः सर्वभाववित् ॥ ३४ नारकाणां तिरश्चां च मानुषाणां च यद्विधाः । शारीरा मानसा बाधास्ताश्चिरं प्राप्य खिन्नवान् ॥ २४-२५ ।। जो प्राणी जिस किसी भी इन्द्रियविषयमें अनुराग करता हुआ वेदनाके प्रतिकारमें सुखकी कल्पना करता है वह व्याधिसे रहित होकर स्वस्थ बैठे हुए मनुष्यको दुखित कहता है, ऐसा मैं समझता हं ।। २६ ।। जिस प्रकार चींटी आदि क्षुद्र कीड़े के काटनेसे उत्पन्न हुए दुखका अनुभव करनेवाला मनुष्य सिंहको बलिष्ठ दाढ़ोंके द्वारा पीसे जानेपर-उसके द्वारा खाये जानेपरहोनेवाली महती पीडाको अनुमानसे जानता है उसी प्रकार थोड़े-से पापके क्षयंसे प्राप्त हुए सुखका अनुभव कर सचेतन प्राणी समस्त कर्मोके क्षयसे उत्पन्न होनेवाले मुक्त जीवके सुखको भी अनुमानसे जान सकता है ।। २७-२८॥ जिस प्रकार एक साथ उत्पन्न हुई समस्त व्याधियोंसे पीड़ित प्राणी उनमें एक एकका उपशम होनेपर तथा सबका ही उपशम होनेपर तरतमरूप शान्तिको प्राप्त होता है उसी प्रकार यहां (संसारमें) जब एक एक पापका नाश होनेपर प्राणी सुखको प्राप्त होता है तब क्या समस्त पापको नष्ट करके मुक्तिको प्राप्त हुआ सिद्ध जीव सुखी नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥ २९-३० ॥ वह सिद्ध जीव दूसरोंकी सेवासे उत्पन्न होने वाली दीनतासे रहित, विषयोंकी इच्छासे दूर, प्राप्त हुई अभीष्ट सामग्रीके विनाशके भयसे रहित, तथा नीच जनके द्वारा किये जानेवाले अपमानसे भी रहित होता है ॥३१॥ वह अज्ञानरूप अन्धकारसे परिपूर्ण ऐसी पापरूप विशाल गुफामें चिर काल तक रहकर उससे बाहिर निकलता हुआ पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) को प्राप्त कर चुका है ॥ ३२॥ त्रिकालवर्ती सब तत्त्वोंको जाननेवाला सिद्ध जीव ज्ञानसे जिस सुखको प्राप्त करता है उस सुखके लिये बहुत खोजनेपर भी कोई उपमा नहीं दिखती, अर्थात् वह अनुपम है ।। ३३॥ जब एक ही श्लोकको तथा ग्रन्थसे और अर्थसे किसी एक पूर्ण शास्त्रको भी जाननेवाला मनुष्य अतिशय आनन्दको प्राप्त होता है तब भला जो सब ही पदार्थों को जानता है उसके विषय में क्या कहा जाय ? अर्थात् वह तो नियमसे अतिशय सुखी होगा ही ॥३४॥ संसारी जीव नारकियों, तिर्यंचों और मनुष्योंके जितने प्रकारकी शारीरिक एवं मानसिक बाधायें हो सकती हैं उन सबको १५ सुसं। २ प कीटका । ३ ब विभाधितः । ४ आ प दुःकृतं । ५ आ लन्द। ६ आ मानवां । ७ब यद्विदाः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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