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-११.४६] एकादशो विभागः
[ २२३ सर्वतो रहितस्ताभिर्मुक्तः संसारभारकात् । स्वाधीनश्च प्रसन्नश्च सिद्धः सुष्ठ सुखायते ॥ ३६ दुःखैर्नानाविधः क्षुण्णो जीवः कालमनादिकम् । तेभ्योऽतीतो' भृशं शान्तो मग्नो ननु सुखार्णवे ॥ मनोविषयस्तृप्तः सर्ववस्तुषु निस्पृहः । प्रसन्नः स्वस्थमासीनः सुखी चेन्नितस्तथा ॥ ३८ लक्षणाङ्कितदेहानां दर्पणोत्थितबिंबवत् । ज्ञानदर्शनतत्त्वज्ञः शुद्धात्मा सिद्ध इष्यते ॥ ३९ क्षायिकज्ञानसम्यक्त्वं वीर्यदर्शनसिद्धता। निर्द्वन्द्वं च सुखं तस्य उक्तान्यात्यन्तिकानि हि ॥४० अवेदेश्च[श्चा]कषायश्च निष्क्रियो मूर्तिजितः । अलेपश्चाप्यकर्ता च सिद्धः शाश्वत" इष्यते ॥ अक्षयानघमत्यन्तममेयानुपम शिवम् । ऐकान्तिकमतष्णं च अव्याबाधं महासुखम् ॥ ४२ त्रैकाल्ये त्रिषु लोकेषु पिण्डितात्प्राणिनां सुखात् । अनन्तगुणितं प्राहुः सिद्धक्षणसुखं बुधाः ॥ ४३ तिर्यग्लोकप्रमाणका रज्जुर्मीयेत चेत्तया। चतुर्दशगुणो लोको भवत्यायाममानतः ॥ ४४ मेरुमूलादधः सप्त ऊर्ध्वं तस्माच्च रज्जवः । सप्तरज्जुप्रमाणेषा अधोलोकान्तरुन्द्रता ॥ ४५
।७।७। ऐशानाद्रज्जुरद्यर्धा ( ? )माहेन्द्रात्सार्धकं द्वयम् । सहस्राराच्च पञ्चैव अच्युतात्षडुदाहृताः ॥ ४६
चिर कालसे प्राप्त करके खेदको प्राप्त हुआ है । संसारके भारसे मुक्त हुआ सिद्ध जीव उपर्युक्त बाधाओंसे सर्वथा रहित होकर स्वाधीन एवं प्रसन्न होता हुआ अतिशय सुखी होता है ॥३५-३६॥ नाना प्रकारके दुःखों द्वारा अनादि कालसे खेदको प्राप्त हुआ संसारी जीव उक्त दुःखोंसे रहित होकर अतिशय शान्त होता हुआ सुखरूप समुद्र में मग्न हो जाता है ।। ३७ ।। जो मनोज्ञ विषयोंसे संतुष्ट हो चुका है, सब वस्तुओंके विषयमें निःस्पृह है, प्रसन्न है, और स्वस्थ होकर स्थित है वह यदि सुखी है तो जो मुक्तिको प्राप्त हो चुका है वह क्यों न सुखी होगा? वह तो सुखी होगा ही ।। ३८।। लक्षणोंसे अंकित शरीरवालोंका जिस प्रकार दर्पणमें प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकारके आकारमें स्थित जो शुद्ध आत्मा ज्ञान और दर्शनके द्वारा यथार्थ वस्तुस्वरूपको जानता है वह सिद्ध माना जाता है ।।३९। उक्त सिद्ध जीवके क्षायिक ज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक वीर्य, क्षायिक दर्शन, सिद्धत्व और निराकुल सुख ये सब गुण आत्यन्तिक (अविनश्वर) कहे गये हैं ।। ४० ॥ जो वेदसे रहित, कषायसे विमुक्त, निष्क्रिय, अमूर्तिक, निर्लेप और अकर्ता है वह शाश्वत सिद्ध माना जाता है ।। ४१ ।। मुक्तिका महान् सुख अविनश्वर, निष्पाप, अनन्त, अपरिमित, अनुपम, कल्याणकारक, ऐकान्तिक और तृष्णा एवं बाधासे रहित है ।। ४२ ॥ विद्वान् पुरुष तीनों काल और तीनों लोकोंमें स्थित प्राणियोंके समस्त सुखकी अपेक्षा सिद्धोंके क्षणभरके भी सुखको अनन्तगुणा बतलाते हैं ।।४।।
एक राजु तिर्यग्लोक (मध्यलोक) प्रमाण है । उस राजुसे यदि लोकको मापा जाय तो वह समस्त लोक आयामप्रमाणमें उस राजुसे चौदहगुणा होगा ।। ४४ ।। मेरुतलसे नीचे सात (७) और उससे ऊपर भी सात (७) ही राजु हैं । यह अधोलोकके अन्तका विस्तार सात राजु प्रमाण है ।। ४५ ॥ ऐशान कल्प तक डेढ़ राजु, (३) माहेन्द्र कल्प तक अढ़ाई (1) राजु, सहस्रार कल्प तक पांच (५) राजु, अच्युत कल्प तक छह (६) राजु और लोकके अन्त तक सात (७) राजु
१५ तीता । २ आ चेन्निवत' प चेनिनृत । ३ प द्रलक्षिणाङिकत । ४ प निद्वद्वं । ५५ ह। ६प अलेप्य । ७ शाश्वत् ।
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