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________________ [२२१ -११.२५] एकादशो विभागः सिद्धो विचित्रचारित्रः षड्द्रव्यनिचितं बृहत् । 'आलेख्यपटवत्पश्यन्न रज्यति न रुष्यति ॥ १५ मत्तः पिशाचाविष्टो वा तथा पित्तविमोहितः । तैविमुक्तः पुनर्दोषः स्वस्थो यद्वत्सुखायते ॥ १६ रागद्वेषवशातीतः प्रसन्नोदकवच्छुचिः । कामक्रोधविनिर्मुक्त: सिद्धस्तद्वत्सुखायते ॥ १७ विषयेषु रति मूडा मन्यन्ते प्राणिनां नः] सुखम् । न तत्सुखं सुखं ज्ञानात् प्राज्ञानां तत्त्वदशिनाम्।। २ अमेध्यरतयो दृष्टाः कृमिशूकरकुक्कुराः । तदप्येषां सुखं प्राप्तं रति सुखमितीच्छताम् ॥ १९ कष्टे रत्यरती जन्तून् बाधेते जन्मनि स्थितान् । प्रियाप्रिये विशीले च दरिद्रं वनिते यथा ॥२० दुःखेन महता भग्नो रमतेऽज्ञस्तथाविधे । द्विषताभिद्रुतो यद्वत्सदोषां सरितं व्रजेत् ॥२१ भारभग्ने स्ववामांशे दक्षिणे प्रक्षिपेद्यथा। तथा खेदप्रतीकारे रममाणः सुखायते ॥ २२ गतितष्णाक्षधाकान्तो विधमोदकभोजनः । प्रतीकारात्सुखं वेत्ति श्रमाभावान्महत्सुखम् ॥ २३ कल्हारकुमुदाम्भोजकुसुमैः परिकमितम् । चन्दनोशीरशीताम्बुव्यजनानिलवारितम् ॥ २४ ज्वरदाहपरिविलष्टं तृष्णात प्रेक्ष्य मानुषम् । ज्वराय' स्पृहयेत्कश्चित्परिकर्माभिलाषतः ॥ २५ जगत् तीन प्रकारका है ।। १४ ॥ विचित्र चारित्रका धारक सिद्ध जीव छह द्रव्योंसे व्याप्त विस्तृत लोकको चित्रपटके समान देखता हुआ न तो उससे राग करता है और न द्वेष भी करता है ॥ १५ ॥ जिस प्रकार उन्मत्त, पिशाचसे पीड़ित और पित्तसे विमूढ़ हुआ प्राणी उन उन दोषोंसे रहित होकर स्वस्थ होता हुआ सुखको प्राप्त होता है उसी प्रकार राग-द्वेषकी पराधीनतासे रहित, प्रसन्न जलके समान निर्मल और काम-क्रोधसे मुक्त हुआ सिद्ध जीव भी सुखको प्राप्त होता है ।। १६:१७ ।। मूर्ख प्राणी विषयों में होनेवाले अनुरागको सुख मानते हैं । परन्तु वास्तवमें वह सुख नहीं है । सच्चा सुख तो वस्तुस्वरूपके जानकार विद्वान् जनोंको तत्त्वज्ञानसे प्राप्त होता है ।। १८ ॥ कृमि (लट), शूकर और कुत्ता ये प्राणी अपवित्र वस्तुमें अनुराग करनेवाले देखे गये हैं। फिर भी रतिको सुख माननेवाले इनको उसी में सुख प्राप्त होता है १९ ।। जिस प्रकार विरुद्ध स्वभाववाली दो प्रिय और अप्रिय स्त्रियां दरिद्र प्राणीको बाधा पहुंचाती हैं उसी प्रकार कष्टकारक रति और अरति ये दोनों भी जन्म-मरणरूप संसारमें स्थित प्राणि योंको बाधा पहुंचाती हैं ।। २० ॥ जिस प्रकार शत्रुसे पीड़ित मनुष्य दोषयुक्त नदीको प्राप्त होता है उसी प्रकार महान् दुखसे दुखी हुआ अज्ञानी प्राणी भी उक्त प्रकारके विषयजन्य सुखमें रमता है ।। २१ ।। जिस प्रकार अपने वाम भागके भारसे पीड़ित होनेपर मनुष्य उस भारको दक्षिण भागमें रखकर सुखका अनुभव करता है उसी प्रकार कामादिवेदनाजन्य खेदके प्रतीकारमें आनन्द माननेवाला प्राणी भी उसमें सुख मानता है ।। २२ ।। गमन, प्यास और भूखसे पीड़ित प्राणी विश्राम, जल और भोजनके द्वारा क्रमसे उन उन पीड़ाओंका प्रतिकार करके सुख मानता है । वास्तविक महान् सुख तो श्रमके अभावसे - उक्त गति आदिकी बाधाओंके सर्वथा नष्ट होनेपर - ही होता है ।।२३।। कल्हार, कुमुद और कमल पुष्पोंसे शरीरसंस्कारको प्राप्त तथा चन्दन, खश, शीतल जल और वीजनाकी वायुसे निवारित ऐसे ज्वरके दाहसे सन्तप्त एवं प्याससे पीड़ित मनुष्यको देखकर उक्त शरीरसंस्कारकी इच्छासे क्या कोई ज्वरकी अभिलाषा करता है ? नहीं करता १ब आलेप्य । २ ब अमेद्य । ३ ब कुक्कुटाः । ४ आ दरिदं प ददिदं । ५ प तथाविधेः ब तथा. विदे। ६ ब श्रान्तो । ७५ प्रेक्ष्य । ८ आप ज्वरायु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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