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________________ २२०] लोकविभागः [ ११.४ सर्वार्थाद् द्वादशोत्पत्य योजनानि स्थिता शुभा । सा त्वर्ज[G]नमयी तस्या ऊर्ध्व च वलयत्रयम् ॥४ देशोनं योजनं तच्च' पूर्वमेव तु भाषितम् । तृतीयतनुवातान्ते सर्वे सिद्धाः प्रतिष्ठिता: ॥५ को। घनो २ । घना १ । तनु १। गव्यूतेस्तत्र चोर्ध्वायास्युर्ये भागे व्यवस्थिताः । अन्त्यकायप्रमाणात्तु किचित्संकुचितात्मकाः ॥६ धनुःशतानि पञ्चैव देशोनानीति भाषितम् । सिद्धावगाहनक्षेत्रबाहल्यमृषिपुंगवः ॥ ७ ।५००। अवगाढश्च यत्रैकस्तत्रानेकाः समागताः। धर्मास्तिकायतन्मात्रं गत्वा न परतो गताः ॥ ८ सिद्धाः शुद्धाः विमुक्ताश्च विभवा अजरामराः । असंगास्तीर्णसंसाराः पारगा बन्धनिःसृताः ॥९ अलेपा[:] कर्म निर्मुक्ता अरजस्का अमूर्तयः । शान्ताः सुनिर्वृताः पूताः परमाः परमेष्ठिनः ॥१० अक्षया अव्ययानन्ताः सर्वज्ञाः सर्वदशिनः । निरिन्द्रिया निराबाधा कृतकृत्याश्च ते स्मृताः ॥ ११ सर्वजीवानां गतिमागतिमेव च । च्यवनं चोपपातं च बन्धमोक्षौ च कर्मणाम ॥ १२ भक्तमृद्धि' कृतं चापि चिन्तितं सर्वभावि च । जानानाः पर्ययः सर्वैः सुखायन्तेऽतिनिर्वृत्ताः॥ १३ त्रिधा भिन्नं जगच्चेदं निरयान् द्वीपसागरान्। 'धरानद्यद्रितीर्थानि विमानभवनानि च ॥ १४ सवटा वह रजतमयी उत्तम पृथिवी सर्वार्थसिद्धि इन्द्रकसे बारह योजन ऊपर जाकर स्थित है। उसके ऊपर तीन वातवलय हैं ।। ४ । उन तीनों वातवलयोंका विस्तार कुछ कम एक योजन मात्र है जो पूर्वमें कहा ही जा चुका है। तीसरे तनुवातवलयके अन्तमें सब सिद्ध जीव स्थित हैं। घनोदधि २ को., घन १ को., तनु १ को. [ ४२५ धनुष कम] ।।५।। वहां उपरिम गव्यूतिके चतुर्थ भागमें स्थित वे सिद्ध अन्तिम शरीरके प्रमाणसे कुछ संकुचित (हीन) आत्मप्रदेशोंवाले हैं ।। ६ ।। ऋषियोंमें श्रेष्ठ गणधरादिकोंने सिद्धोंके अवगाहनाक्षेत्रके बाहल्यका प्रमाण कुछ कम पांच सौ (५००) धनुष मात्र कहा है ।। ७ ।। जहांपर एक सिद्ध जीवका अवगाह है वहींपर अनेक सिद्ध जीव स्थित हैं । वे सिद्ध जीव जहां तक धर्मास्तिकाय है वहीं तक जाकर उसके आगे नहीं गये हैं ॥८॥ वे सिद्ध जीव शुद्ध, कर्ममलसे रहित, जन्मसे रहित, जरा और मरणसे रहित, परिग्रहसे रहित, संसाररूप समुद्रको तैरकर उसके पारको प्राप्त हुए, बन्धसे रहित, निर्लेप, कर्मबन्धसे मुक्तिको प्राप्त हुए, ज्ञानावरणादिरूप कर्म रजसे रहित, अमूर्तिक, शान्त, अतिशय सुखी, पवित्र, उत्कृष्ट, उत्तम पदमें स्थित, अविनश्वर, व्ययसे रहित, अन्तसे रहित,सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, इन्द्रियोंसे रहित, बाधासे रहित और कृतकृत्य माने गये हैं ॥ ९-११ ।। उक्त सिद्ध जीव निरन्तर सब जीवोंकी गति-आगति, मरण, उत्पत्ति, कर्मों के बन्ध-मोक्ष, भक्त, ऋद्धि, कृत,चिन्तित एवं भविष्यमें होनेवाले सबको समस्त पर्यायोंके साथ जानते हुए अतिशय निवृत्तिको प्राप्त होकर सुखका अनुभव करते हैं ।। १२-१३ ।। नरक ; द्वीप, समुद्र, पृथिवी, नदी एवं तीर्थ ; और विमानभवन इनका आश्रय करके यह १ ब तस्य । २ प तृतीया । ३ ब सर्व । ४ ब चोपपात्तं । ५प भक्तमृद्धि ब भुक्त मृद्धि । ६ ब घरानध्यद्रि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jainelibrary.or
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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