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________________ [ एकादशो विभागः] सिद्धानां भाषितं स्थानमूर्ध्वलोकस्य मूर्धनि । ईषत्प्राग्भारसंज्ञा तु पृथिवी पाण्डराष्टमी॥ १ अष्टयोजनबाहल्या मध्येऽन्ते पत्रवत्तनुः । मानुषक्षेत्रविस्तीर्णा श्वेतच्छत्राकृतिश्च सा॥२ विस्तारो मानुषक्षेत्रे परिधिश्चापि वर्णितः । मध्यात्प्रभृतिबाहल्यं क्रमशो हीनमिष्यते ॥३ ।४५००००० । १४२३०२४९ । उक्तं च षट्कं त्रिलोकप्रज्ञप्तौ [८, ६५२-५४; ६५६-५८] सम्वत्थसिद्धिइंदयकेदणदंडादु उवरि गंतूणं । बारसजोयणमेत्तं अटुमिया चिटुदे पुढवी॥१ पव्वावरेण तीए उरि हेट्ठिमतडेसु' पत्तेक्कं । वासो हवेदि एवको रज्जू थोवेण परिहीणा ॥२ उत्तरदक्षिणभागे दोहं किंचूणसत्तरज्जूओ। वेत्तासणसंठाणा सा पुढवी अट्ठजोयणा बहला॥३ एदाए बहुमज्मे खेतं णामेण ईसपब्भारं। अज्जुणसुवण्णसरिसं णाणारयणेहि परिपुष्णं ॥४ उत्ताणधवलछत्तोवमाणसंठाणसुंदरं एदं । पंचत्तालं जोयणलक्खाणि वाससंजुत्तं ॥५ । ४५०००००। तम्मज्सबहलमलैं३ जोयणया अंगुलं पि अंतम्मि । अट्ठमभूमज्झगदो तप्परिहो मणुवखेत्तपरिहिसमा ॥ ६ सिद्धोंका स्थान ऊर्ध्वलोकके शिखरपर कहा गया है । वहां ईषत्प्राग्भार नामकी धवल आठवीं पथिवी है । वह मध्यमें आठ योजन बाहल्यसे सहित, अन्तमें पत्रके समान कृश, मनुष्य लोकके बराबर विस्तीर्ण और धवल छत्रके समान आकारवाली है ॥ १-२ ॥ मनुष्यलोकका जो विस्तार (४५००००० यो.) और परिधि (१४२३०२४९ यो.) कही गई है वही विस्तार और परिधि उक्त पृथिवीकी भी निर्दिष्ट की गई है। उसका बाहल्य मध्य भागसे लेकर क्रमसे उत्तरोत्तर हीन माना जाता है ।। ३ ।। त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें इस विषयसे सम्बद्ध छह गाथायें कही गई हैं - सर्वार्थसिद्धि इन्द्रकके ध्वजदण्डसे बारह योजन मात्र ऊपर जाकर आठवीं पृथिवी स्थित है।। १॥ उसका पूर्वापर विस्तार उपरिम और अधस्तन तटोंमेंसे प्रत्येकमें कुछ कम एक राज मात्र है ॥ २॥ उसकी लंबाई उत्तर-दक्षिण भागमें कुछ कम सात राजु प्रमाण है। वेत्रासनके समान आकारवाली वह पृथिवी आठ योजन मोटी है ।। ३ । इसके ठीक बीचमें ईषत्प्रागभार नामक क्षेत्र है जो चांदी एवं सुवर्णके सदृश तथा अनेक रत्नोंसे परिपूर्ण है ।। ४।। यह क्षेत्र ऊपर ताने हए धवल छत्रके समान आकारसे सुन्दर और पैंतालीस लाख (४५०००००) योजन प्रमाण विस्तारसे संयुक्त है ।। ५ ।। उसका बाहल्य मध्यमें आठ योजन और अन्तमें अंगुल मात्र ही है । आठवीं पृथिवीके मध्यमें उसकी परिधि मनुष्यलोककी परिधिके समान है ॥ ६॥ १५ हेट्ठि तणेसु ब हेट्ठितडेसु (ति. प. उवरिमहेछिमतलेसु) । २ ति. प. स्वेण । ३ या प बहुलमठें । ४ व अंगल। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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