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________________ २१८] लोकविभागः [ १०.३४१ त्रिपुष्करादिभिर्वाद्यैर्गीतैश्च मधुरस्वरः । नृत्तश्च ललितनकैः प्रमोदजननैः शुभैः ॥ ३४१ शब्दरूपरसस्पर्शान् गन्धांश्च विविधान् शुभान् । भुञ्जन्ते विविधान् भोगान् मनोज्ञान् प्रियवर्धनान् नानाडगरागवासिन्यो नानाभरणभूषिताः । अम्लानमाल्यधारिण्यः कृतचित्रविशेषकाः ॥ ३४३ ताभिर्नैकाप्सरोभिश्च क्रीडारतिपरायणाः । वेदयन्ति महत्स्वर्गे सर्वे सुरगणाः सुखम् ॥३४४ हेमरत्नमयेष्वेते पञ्चवर्णेषु वेश्मसु । पुष्पोपहाररम्येषु धूपगन्धोपवासिषु ॥ ३४५ आरामवापीगेहेषु द्वीपपर्वतसानुषु । नानाक्रीडनदेशेषु रमन्ते भोगभूमिषु ॥ ३४६ सदैवाचरितास्तेषां विषयाश्चित्तहर्षिणः । जयन्त' इव चान्योन्यं नित्यं प्रोतिसुखावहाः ॥३४७ महाकल्याणपूजासु यान्ति कल्पनिवासिनः । प्रणमन्ति परे भक्त्या तत्रैवोज्ज्वलमौलिभिः ॥३४८ जित्वेन्द्रियाणि चरितरमलस्तपोभिराक्रम्य नाकनिलयान ज्वलतोऽतिदीप्त्या । राजन्ति कान्तवपुषः शुभभूषणाढ्या देवा वसन्ततिलका इव पुष्पपूर्णाः ॥ ३४९ इति लोकविभागे स्वर्गविभागो नाम दशमं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १० ॥ रहने वीते हुए कालको नहीं जानते हैं ॥ ३४० ।। वे देव-देवियां तीन पुष्कर ( मृदंग ) आदि बाजों, मधुर स्वरवाले गीतों एवं आनन्दको उत्पन्न करनेवाले अनेक उत्तम नृत्योंके साथ नाना प्रकारके उत्तम शब्द, रूप, रस. स्पर्श और गन्ध स्वरूप रागवर्धक अनेक मनोहर भोगोंको भोगते हैं ।। ३४१-४२ ॥ जो देवियां अनेक लेपनोंसे सुगन्धित, बहुत आभरणोंसे विभूषित, न मुरझानेवाली मालाको धारण करनेवाली तथा की गई चित्ररचनासे सुशोभित हैं उन प्रिय देवियों के साथ तथा और भी अनेक अप्सराओं के साथ क्रीडारतिमें लीन हुए वे सब देवसमूह स्वर्ग में महान सुखका अनुभव करते हैं ।। ३४३-३४४ ॥ वे देव पुष्पोंके उपहारसे रमणीय और धूपकी सुगन्धसे सुवासित ऐसे पांच वर्णवाले सुवर्ण एवं रत्नमय प्रासादोंमें, उद्यानभवनोंमें, वापिकागृहोंमें, द्वीपोंमें, पर्वतशिखरोंपर तथा अन्य भी भोगोंके स्थानभूत अनेक प्रकारके क्रीडास्थानों में रमण करते हैं ।। ३४५-३४६ ॥ उनके मनको हर्षित करनेवाले ऐसे निरन्तर आचरित विषय. भोग सदा ही प्रेम एवं सुखको उत्पन्न करते हुए मानो एक दूसरेके ऊपर विजय प्राप्त करते हैं ।। ३४७ ।। कल्पवासी देव तीर्थंकरोंके कल्याणमहोत्सवोंमें जाते हैं। परन्तु आगेके अहमिन्द्र देव, वहीं स्थित रहकर भक्तिसे उज्ज्वल मस्तकोंको झुकाकर प्रणाम करते हैं ।। ३४८।। इन्द्रियोंको जीतकर पूर्व में अनुष्ठित निर्मल तपोंसे स्वर्गविमानोंको प्राप्त करके अतिशय कान्तिसे देदीप्यमान वे देव सुन्दर शरीरसे युक्त होकर उत्तम भूषणोंको धारण करते हुए पुष्पोंसे परिपूर्ण वसन्तकालीन तिलक वृक्षोंके समान सुशोभित होते हैं ।। ३४९ ।। इस प्रकार लोकविभागमें स्वर्गविभाग नामक दसवां प्रकरण समाप्त हुआ ॥ १०॥ १५ जायन्त । २ प ज्वलितो। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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