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२०८] लोकविभागः
[ १०.२८५ आधयोः सप्तहस्तोच्चाः परयोः षट्कहस्तकाः। पञ्चरत्निप्रमाणाश्च ब्रह्मलान्तवयोः सुराः॥२८५ शुक्रदेवाश्चतुर्हस्ता सहस्रारे तथैव च । त्रिहस्ता आनताद्येषु प्रैवेयेषु विहस्तकाः ॥२८६
।४।३ [२]। अनुत्तरानुदिग्देवा सारित्निप्रमाणकाः । एकहस्तप्रमाणास्तु सर्वार्थे सुरसत्तमाः ॥२८७
उक्तं च [त्रि. ५४३]दुसु दुसु चदु दुसु दुसु चउ तित्तिसु सेसेसु देहउच्छेहो । रयणोण सत्तछप्पण चत्तारि दलेण होणकमा॥
।७।६।५।४। ।३।३।२।३।१। ऋतुप्रभृतिदेवानां तेजोलेश्या विवर्धते । आ प्रभायाः शताराच्च पद्मातस्त्रिषु वर्धते ॥२८८ आनतादूर्ध्वमूवं च आ सर्वार्थविमानतः । प्रस्तरे प्रस्तरे लेश्या शुक्ला देवेषु' वर्धते ॥२८९
उक्तं च [ ]द्वयोर्द्वयोश्च षट्के च द्वयोस्त्रयोदशस्वपि । चतुर्दशविमानेषु त्रिदशानां यथाक्रमम् ॥१७ पीता च पीतपमा च पद्मा वै पद्मशुक्लका । शुक्ला परमशुक्ला' च लेश्याः स्युरिति निश्चिताः॥१८
प्रथम दो कल्पोंके देव सात (७) हाथ ऊंचे, आगेके दो कल्पोंके देव छह (६) हाथ ऊंचे, ब्रह्म और लान्तव कल्पोंके देव पांच (५) हाथ ऊंचे, शुक्र और सहस्रार कल्पोंके देव चार (४) हाथ ऊंचे, शेष आनतादि चार कल्पोंके देव तीन (३)हाथ ऊंचे, ग्रेवेयकोंके दो (२) हाथ ऊंचे, अनुत्तर व अनुदिशोंके देव डेढ (१३) हाथ ऊंचे तथा सर्वार्थसिद्धिके उत्तम देव एक (१) हाथ प्रमाण ऊंचे होते हैं ।। २८५-२८७ ।। कहा भी है
देवोंके शरीरकी ऊंचाई दो कल्पोंमें सात (७), दो कल्पोंमें छह (६), चार कल्पोंमें पांच (५), दो कल्पोंमें चार (४), दो कल्पोमें साढ़े तीन (३३), चार कल्पोंमें तीन (३), शेष तीन त्रिक (अधस्तन, मध्यम व उपरिम |वेयक) में क्रमसे अढ़ाई, दो व डेढ (२३, २, १३) तथा शेष अनुदिश व अनुत्तरोंमें एक (१) हाथ प्रमाण है ॥ १६॥
ऋतुको आदि लेकर प्रभा पटल पर्यन्त रहनेवाले देवोंके उत्तरोत्तर तेजोलेश्या बढ़ती जाती है। आगे प्रभा पटलसे शतार पर्यन्त पद्मलेश्या बढ़ती जाती है । आनतसे लेकर ऊपरके कल्प विमानोंमें तथा उसके आगे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त कल्पातीत विमानोंमें प्रत्येक पटलमें शुक्ललेश्या बढ़ती जाती है ।। २८८-२८९ ।। कहा भी है
प्रथम दो कल्पोंमें, आगे सानत्कुमार व माहेन्द्र इन दो कल्पोंमें, ब्रह्मादि छह कल्पोंमें, शतार व सहस्रार इन दो कल्पोंमें, आनतादि चार व नौ अवेयक इन तेरह स्थानोंमें तथा शेष चौदह (नौ अनुदिश व पांच अनुत्तर) विमानोंमें स्थित देवोंके यथाक्रमसे पीत, पीत व पद्म, पद्म, पद्म व शुक्ल, शुक्ल, तथा उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है; इस प्रकार देवोंमें लेश्याओंका क्रम निश्चित जानना चाहिये ।। १७-१८ ।।
१ प देवीषु । २ प पर शुक्ला ।
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