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-१०.२९०] दशमो विभागः
[२०९ आद्ययोः कल्पयोर्देवा आ धर्माया विकुर्वते । परयोरा द्वितीयाया आ शैलायाश्चतुर्वपि ॥२९० देवाः शुक्रचतुष्के च आ चतुर्थात्सविक्रियाः । आनतादिषु देवाश्च आ पञ्चम्या इतीष्यते ॥२९१ ग्रेवेयकास्तथा षष्ठया आ सप्तम्यास्ततः परे । दर्शनं चावधिज्ञानं विक्रियेवाथ इष्यते ॥२९२ अनन्तभाग मूर्तीनां जीवानपि सकर्मकान् । समस्तां लोकनालि च प्रेक्षन्तेऽनुत्तरामराः ॥२९३ आऽऽरणाद्दक्षिणस्थानां देवानां हि वराङ्गनाः । सौधर्म एव जायन्ते जाता यान्ति स्वमास्पदम् ।। तथोत्तरेषां देवानां देन्यो या आऽच्युतान्मताः । ता ऐशाने जनित्वा तु प्रयान्ति स्वं स्वमालयम् ।। नियुतानि विमानानि षट् सौधर्मगतानि हि । देवीभिरेव पूर्णानि चत्वार्यशाननामनि ॥ २९६
।६०००००। ४०००००। शेषाणि तु विमानानि तयोरुक्तानि कल्पयोः । देवीभिः सह देवैस्तु मिश्रः पूर्णानि लक्षयेत् ॥२९७ षट्चतुष्कमुहूर्ताः स्युरैशानाज्जननान्तरम् । च्यवनान्तरमप्येवं जघन्यात्समयोऽपि च ॥२९८
।२४।
विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि सौधर्म और ईशान इन दो कल्पोंमें स्थित देवोंके मध्यम पीत लेश्या, सनत्कुमार और माहेन्द्र इन दो कल्पोंके देवोंके उत्कृष्ट पीत लेश्या व जघन्य पद्मलेश्या; आगे ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र और महाशुक्र इन छह कल्पोंमें स्थित देवोंके मध्यम पालेश्या; शतार और सहस्रार इन दो कल्पोंके देवोंके उत्कृष्ट पद्मलेश्या व जघन्य शुक्ललेश्या; आनत, प्राणत, आरण व अच्युत ये चार कल्प तथा नौ ग्रेवेयक इस प्रकार इन तेरह स्थानोंमें रहनेवाले देवोंके मध्यम शुक्ललेश्या; तथा नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर इन चौदह विमानोंमें रहनेवाले देवोंके उत्कृष्ट शुक्ललेश्या होती है।
प्रथम दो कल्पोंके देव घर्मा पृथिवी तक, आगेके दो कल्पोंके देव दूसरी पृथिवी तक, आगे चार कल्पोंके देव शैला (तीसरी) पृथिवी तक, शुक्र आदि चार कल्पोंके देव चौथी पृथिवी तक, आनत आदि चार कल्पोंके देव पाचवीं पृथिवी तक, अवेयकवासी देव छठी पृथिवी तक, तथा आगे अनुदिश व अनुत्तरोंमें रहनेवाले देव सातवीं पृथिवी तक विक्रिया करते हैं। उक्त देवोंके दर्शन व अवधिज्ञानका विषयप्रमाण विक्रियाके समान ही माना जाता है ॥२९०-२९२॥ अनुत्तर विमानवासी देव मूर्तिक कर्मोंके अनन्तवें भागको, कर्मयुक्त जीवोंको तथा समस्त लोकनालीको भी देखते हैं ॥ २९३ ॥
आरण पर्यन्त दक्षिण कल्पोंमें स्थित देवोंकी देवांगनायें सौधर्म कल्पमें ही उत्पन्न होती हैं । वहां उत्पन्न हो करके वे अपने स्थानको जाती हैं ।। २९४ ॥ उसी प्रकार अच्युत कल्प तक उत्तर देवोंकी जो देवियां मानी जाती हैं वे ऐशान कल्पमें उत्पन्न हो करके अपने अपने स्थानको जाती हैं ।। २९५ ॥ सौधर्म कल्पगत छह लाख (६०००००) विमान तथा ऐशान कल्पगत चार लाख (४०००००) विमान केवल देवियोंसे ही परिपूर्ण हैं ।। २९६ ॥ उन दोनों कल्पोंमें जो शेष विमान हैं वे देवियों के साथ मिलकर रहनेवाले देवोंसे परिपूर्ण कहे गये हैं, ऐसा समझना चाहिये ॥ २९७ ॥
देवोंके जन्मका और मरणका उत्कृष्ट अन्तर सौधर्म कल्पमें छह (६) मुहूर्त और ऐशान कल्पमें चार (४) मुहूर्त प्रमाण होता है । उनके जन्म और मरणका अन्तर जघन्यसे एक
१ मा प या अच्युतान्मताः । २ मा प देव्यस्तु। ३ प स्युरशानाजन । को.२७
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