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________________ -१०.२८४] दशमो विभागः [२०७ काम्या च कामिनी पद्मगन्धालम्बूषसंज्ञका । चतस्र ऊर्ध्वलोके तु गणिकानां महत्तराः ॥२८१ उक्तं च [ति. प. ८-४३५]गणियामहत्तरीणं समचउरस्सा पुरीओ विदिसासुं । एक्कं जोयणलक्खं पत्तेक्कं दोहवासजुदा ॥१५ ।१०००००। पञ्चपल्यायुषस्त्वाद्ये द्वितीये सप्तजीविता: । स्थितिरेवं गणिकानां ज्ञेया कन्दर्पा अपि चाद्ययोः ॥ ।५।७। आ लान्तवात् किल्विषिकाः आभियोग्यास्तथाच्युतात्। जघन्यस्थितयश्चैते स्वे स्वे कल्पे समीरिताः॥ द्विद्विकत्रिचतुष्केषु शरीरस्पर्शरूपकः' । शब्दचित्तप्रवीचारा अप्रवीचारकाः परे ॥२८४ ऊर्ध्वलोक में काम्या, कामिनी, पद्मगन्धा और अलंवूषा नामवाली चार गणिकाओंकी महत्तरियां होती हैं ।। २८१ ।। कहा भी है गणिकामहत्तरियोंकी जो विदिशाओं में समचतुष्कोण नगरियां हैं उनमेंसे प्रत्येक एक लाख (१०००००) योजन प्रमाण लंबी-चौड़ी हैं ।। १५ ।। ___ गणिकाओंकी आयु प्रथम कल्पमें पांच (५) और द्वितीय कल्पमें सात (७) पत्य प्रमाण जानना चाहिये । कन्दर्प देव प्रथम दो कल्पोंमें, किल्विषिक देव लान्तव कल्प तक तथा आभियोग्य देव अच्युत कल्प तक उत्पन्न होते हैं- आगेके कल्पोमें वे उत्पन्न नहीं होते। अपने अपने कल्पमें जो जघन्य आयु कही गई है वे उसी जघन्य आयुसे संयुक्त होते हैं ।। २८२-२८३ ।। प्रथम दो कल्पोंके देव कायप्रवीचारसे सहित, आगेके दो कल्पोंके स्पर्शप्रवीचारसे सहित, इसके आगे चार कल्पोंके रूपप्रवीचारसे सहित, उनसे आगे चार कल्पोंमें शब्दप्रवीचारसे सहित, तथा अन्तिम चार कल्पोंमें चित्तप्रवीचारसे सहित होते हैं। आगेके सब देव प्रवीचारसे रहित होते हैं ।। २८४ ।। विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि सौधर्म और ऐशान कल्पोंमें रहनेवाले देवोंके जो कामपीड़ा उत्पन्न होती है उसे वे मनुष्योंके समान देवांगनाओंके साथ शारीरिक सम्भोग करके शान्त करते हैं । सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्लोंके देव उक्त पीड़ाकी देवागनाओंके स्पर्शमात्रसे शान्त करते हैं । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ट इन चार कल्पोंके देव देवांगनाओंके रूपके अवलोकन मात्रसे ही उस पीड़ाको शान्त करते हैं। शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पोंके देव केवल देवांगनाओंके गीत आदिको सुन करके ही उक्त वेदनासे रहित होते हैं । आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चार कल्पोंके देव मनमें विचार करने मात्रसे ही उस वेदनासे मुक्त होते हैं। आगे ग्रंवेयक आदि कल्पातीत विमानों में रहने वाले देवोंके वह कामपीड़ा उत्पन्न ही नहीं होती। १ब रूपक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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