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२०४] लोकविभागः
[१०.२५४तत्र सिंहासने दिव्ये सर्वरत्नमये शुभे । स्वर निषण्णो विस्तीर्णे जयशब्दाभिनन्दितः ॥२५४ वतः सामानिकर्देवैस्त्रास्त्रिशैस्तथैव च । सुखासनस्थैः श्रीमद्भिस्तन्मुखोन्मुखदृष्टिभिः ॥२५५ चित्रभद्रासनस्थाभिर्वामदक्षिणपार्श्वयोः । संक्रोड्यमानो देवीभिः क्रीडारतिपरायणः ॥२५६ तत्र योजनविस्तीर्णः षट्कृति च समुच्छ्रितः । स्तम्मो गोरुतविस्तारधाराद्वादशसंयुतः ॥२५७ वज्रमूर्तिः सपोठोऽस्मिन् क्रोशतत्पाददीर्घकः । व्यासाश्च रत्नशिक्यस्थास्तिष्ठन्ति च समुद्गकाः॥
सक्रोशानि' हि षट तूज़ योजनान्यसमुद्गकाः । कोशन्यूनानि तावन्ति अधश्चाप्यसमुद्गकाः॥२५९ जिनानां रुच्यकास्तेषु सुरैः स्थापितपूजिताः। 'भारतरावतेशानां सौधर्मशानयोर्द्वयोः ॥२६० पूर्वापरविदेहेषु जिनानां रुच्यकाः पुनः । सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोय॑स्तपूजिताः ॥२६१ न्यग्रोधाः प्रतिकल्पं च आयागाः पादपाः शुभाः। जम्बूमानाश्चतुःपार्वे पल्यङ्कप्रतिमायुताः॥२६२
उक्तं च [ति. प. ८,४०५-६]-- सलिंदमंदिराणं पुरदो जग्गोहपायवा होति । एक्केक्कं पुढविमया पूवोदिदजंबुदुमसरिसा ॥९ तम्मले एक्केक्का जिणिदपडिमा य पडिदिसं होति । सक्कादिणमियचलणा सुमरणमेत्ते वि दुरिदहरा
उस सभाभवनमें जय-जय' शब्दसे अभिनन्दित इन्द्र दिव्य, सर्वरत्नोंसे निर्मित, शुभ एवं विस्तीर्ण सिंहासनके ऊपर स्वेच्छापूर्वक विराजमान होता है। वह सुखकारक आसनोंपर स्थित एवं उसके मुखकी ओर दृष्टि रखनेवाले ऐसे कान्तियुक्त सामानिक और त्रायस्त्रिश देवोंसे वेष्टित होकर क्रीड़ामें अनुराग रखता हुआ अपने वाम और दक्षिण भागोंमें अनेक प्रकारके भद्रासनोंपर स्थित देवियों के साथ क्रीड़ा किया करता है ।। २५४-२५६ ।।
वहां एक योज़न विस्तीर्ण, छहके वर्गभूत छत्तीस योजन ऊंचा, एक कोस विस्तारवाली बारह धाराओंसे संयुक्त और पादपीठसे सहित वज्रमय स्तम्भ है। इसके ऊपर एक (?) कोस लंबे और पाव (१) कोस विस्तृत रत्नमय सीकेके ऊपर स्थित करण्डक है ।। २५७-२५८ ।। मानस्तम्भके ऊपर सवा छह (६१) योजन ऊपर और पौने छह (५३) योजन नीचे वे करण्डक नहीं हैं ॥ २५९ ।। सौधर्म और ऐशान इन दो कल्पोंमें स्थित उन स्तम्भोंके ऊपर देवोंके द्वारा स्थापित और पूजित भरत एवं ऐरावत क्षेत्रोंके तीर्थंकरोंके आभूषण रहते हैं ॥ २६० ।। सनत्कुमार और माहेन्द्र इन दो कल्पोंमें स्थित उन स्तम्भोंके ऊपर देवों द्वारा स्थापित एवं पूजित पूर्व और अपर विदेह क्षेत्रोंके तीर्थंकरोंके आभूषण रहते हैं ।। २६१.।।
- प्रत्येक कल्प में अपने चारों पार्वभागोंमें विराजमान ऐसी पल्यंकासन युक्त प्रतिमाओंसे सुशोभित उत्तम न्यग्रोध आयाग वृक्ष होते हैं । ये वृक्ष प्रमाणमें जम्बूवृक्षके समान हैं ।। २६२ ।। कहा भी है
समस्त इन्द्रप्रासादोंके आगे पृथिवीके परिणामरूप एक एक न्यग्रोध वृक्ष होते हैं। वे प्रमाण आदिमें पूर्वोक्त जम्बूवृक्षके समान हैं ।। ९ ।। उनके मूल भागमें प्रत्येक दिशामें एक एक जिनप्रतिमा होती है । स्मरण मात्रसे ही पापको नष्ट करनेवाली उन प्रतिमाओंके चरणों में इन्द्रादि नमस्कार करते हैं ॥ १० ॥
१ व षटकोशानि । २ प भरतं । ३ ति. प. होदि ।
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