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________________ -१०.२७४ दशमो विभागः [ २०५ सौधर्मे व सभेशाने शेषेन्द्राणां सभास्तथा। उपपातसभाश्चैव अहंदायतनानि च ॥२६३ शतार्धायामविस्तीर्णाः पुरस्तान्मुखमण्डपाः । वेदिकाभिः परिक्षिप्ता नानारत्नशतोज्ज्वलाः ॥२६४ ।१००। ५०। सामानिकादिभिः सार्धम् इन्द्राः पर्वसु सादराः । पूजयन्त्यर्हतां तेषु कथाभिरपि चासते ॥२६५ कल्पेषु परतश्चापि सिद्धायतनवर्णना। आयागाः खलु कल्पेषु सभा घेवेयतः स्मृताः ॥२६६ योजनाष्टकमुद्विद्धा तावदेव च विस्तृता। उपपातसभेन्द्राणां त्रास्त्रिशवतां स्मृता ॥२६७ अशोकं सप्तपर्ण च चम्पकं चूतमेव च । पूर्वाद्यानि वनान्याहुर्देवराजबहिःपुरात् ॥२६८ आयतानि सहस्रं च तदर्ध विस्तृतान्यपि । प्राकारः परितस्तेषां मध्ये चैत्यगुमा अपि ॥२६९ ।१००० । ५००। अर्हतां प्रतिबिम्बानि जाम्बूनदमयानि च । तेषां चतुर्पु पार्वेषु निषण्णानि चकासते ॥२७० वालुकं पुष्पकं चैव सौमनस्यं ततः परम् । श्रीवृक्षं सर्वतोभद्रं प्रीतिकृद्रम्यकं तथा ॥२७१ मनोहरविमानं च अचिमाली च नामतः । विमलं च विमानानि यानकानोंति लक्षयेत् ॥२७२ नियुतव्यासदीर्घाणि वैक्रियाणीतराणि च । वैक्रियाणि विनाशीनि स्वभावानि ध्रुवाणि च ॥२७३ सौधर्मादिचतुष्के' च ब्रह्मादिषु तथा क्रमात् । आनतारणयोश्चैव उक्तान्येतानि योजयेत् ॥२७४ उक्तं च [ ति. प. ८-४४१] सौधर्म कल्पके समान ऐशान कल्पमें भी सभागृह है । उसी प्रकार शेष इन्द्रोंके भी सभागृह, उपपातसभा और जिनायतन होते हैं ।। २६३ ।। उनके आगे सौ (१००) योजन दीर्घ, इससे आधे ( ५० यो. ) विस्तीर्ण, वेदिकाओंसे वेष्टित और सैकडों नाना प्रकारके रत्नोंसे उज्ज्वल मुखमण्डप होते हैं ।।२६४।। उनमें इन्द्र पर्व दिनों में सामानिक आदि देवोंके साथ भक्तिसे जिन भगवान्की पूजा करते हैं तथा कथाओंके साथ (तत्त्वचर्चा करते हुए) वहां स्थित होते हैं ॥ २६५ ।। कल्पोंमें तथा आगे ग्रैवेयक आदिमें भी सिद्धायतनका वर्णन करना चाहिये। आयाग (न्यग्रोध वृक्ष) कल्पोंमें तथा सभाभवन ग्रेवेयकमें माने गये हैं (?) ॥२६६ ॥ ___त्रास्त्रिशोंके साथ इन्द्रोंकी उपपातसभा आठ योजन ऊंची और उतनी ही विस्तृत कही गई है ॥ २६७ ।।। इन्द्रपुरके बाहिर पूर्वादि दिशाओंमें क्रमसे अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र ये चार वन स्थित हैं ।। २६८ ॥ वे बन हजार (१०००)योजन लंबे और इससे आधे (५००यो.) विस्तृत हैं। उनके चारों ओर प्राकार और मध्यमें चैत्यवृक्ष स्थित हैं ॥ २६९ ॥ उक्त चैत्यवृक्षोंके चारों पार्श्वभागोंमें पल्यंकासनसे स्थित सुवर्णमय जिनबिम्ब शोभायमान हैं ॥ २७० ।। वालुक, पुष्पक, सौमनस्य, श्रीवृक्ष, सर्वतोभद्र, प्रीतिकृत, रम्यक, मनोहर, अचिमाली और विमल ये यानविमान जानना चाहिये । ये एक लाख योजन] लंबे-चौड़े यानविमान विक्रियानिर्मित और प्राकृतिक भी होते हैं । उनमें विक्रियानिमित विमान नश्वर और स्वाभाविक विमान स्थिर होते हैं ।। २७१-२७३ ।। ये उपर्युक्त विमान क्रमसे सौधर्म आदि चार कल्पों, ब्रह्मादि चार युगलों तथा आनत व आरण कल्प; इस प्रकार इन दस स्थानोंमें कहे गये योजित करना चाहिये ।। २७४ ॥ कहा भी है १५ सौधर्मव समैशाने । २ प श्रीवृक्ष । ३ आ प द्रुवाणि । ४ ५ सौधर्मादिकचतुष्के । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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