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________________ -१०.२५३] दशमो विभागः [२०३ चतुःश्लोकरचना - । ज १ ज १ । उ ५ उ ७।९ ११ । १३ १५ । १७ १९।२१ २३॥ २५ २७ । ३४ ४१ । ४८ ५५। . योजनानां शतं दीर्घा तदर्ध चापि विस्तृता । पञ्चसप्ततिमुद्विद्धा सुधर्मेति सभा शुभा ॥२४३ अष्टयोजनविस्ताररिस्तद्विगुणोच्छ्यैः । रत्नचित्रस्त्रिभिर्युक्ता वेदिकातोरणोज्ज्वला ॥२४४ प्रासादाद्देवराजस्य पूर्वोत्तरदिशि स्थिता । उपपातसभा चात्र सिद्धायतनमेव च ॥२४५ मणिमुक्तेन्द्रनीलश्च महानोलजलप्रभैः । चन्द्रशुक्रप्रभैश्चापि वैडूर्यकनकप्रभः ॥२४६ कर्केतनाङ्कसूर्याभैः सुवर्णरजतैः शुभैः । प्रवालवज्रमुख्यश्च प्रासादाः साधु मण्डिताः ॥२४७ नानामणिमयस्तम्भवेदिकाद्वारतोरणाः । ज्वालार्धचन्द्रचित्राश्च प्रासादाः विविधाः स्मृताः ।।२४८ मुक्ताजालैः सलम्बूषर्माल्यजालैः सुगन्धिभिः । हेमजालैः सुरत्नश्च विराजन्ते मनोरमैः ॥ २४९ नानापुष्पप्रकीर्णासु रत्नचित्रासु भूमिषु । देशे देशे मनोज्ञानि वरशय्यासनानि च ॥२५० उद्यानान्युपसन्नानि सर्वर्तुकुसुमै मैः' । वाप्यश्च पुष्करिण्यश्च छन्नाः पद्मोत्पलैरपि ॥२५१ तूर्यगन्धर्वगीतानां शुभाः शब्दाः मनोरमाः । रूपाणि कान्तसौम्यानि गन्धाः २ सुरभयस्तथा ॥२५२ रसाः परमसुस्वादाः २ स्पर्शा गात्रसुखावहाः । सर्वकामगुणोपेतो नित्योद्योतः सुरालयः ॥२५३ देवियोंकी आयुकल्प सौधर्म ऐशान सान. मा. ब्रह्म ब्रह्मो. ला. का. शु. महा. श. सह. आन. प्रा. आर. अ. जघन्य १पल्य १ ७ ९ ११ १३ १५ १७ १९ २१ २३ २५ २७ ३४ ४१ ४८ उत्कृष्ट ५ ७ ९ ११ १३ १५ १७ १९ २१ २३ २५ २७ ३४ ४१ ४८ ५५ सौ (१००) योजन लंबी, इससे आधी (५०) विस्तृत और पचत्तर (७५) योजन ऊंची सुधर्मा नामकी उत्तम सभा (आस्थानमण्डप) है ।। २४३ ।। यह सभागृह आठ योजन विस्तृत और इससे दूने (१६ यो.) ऊंचे ऐसे रत्नोंसे विचित्र तीन द्वारोंसे संयुक्त तथा वेदिका एवं तोरणद्वारोंसे उज्ज्वल है ॥२४४॥ वह सभाभवन इन्द्रके प्रासादके पूर्वोत्तर कोण (ईशान) में स्थित है। इसके भीतर उपपातसभा और सिद्धायतन भी है ।। २४५॥ वहांपर स्थित अनेक प्रकारके भवन मणि, मोती, इन्द्रनील, महानील, जलकान्त, चन्द्रकान्त, शुक्र (शुक?) कान्त, वैडूर्यमणि, सुवर्णकान्त, कर्केतन, अंक, सूर्यकान्त, उत्तम सुवर्ण व चांदी तथा प्रवाल एवं वज्र आदिसे अलंकृत; अनेक मणियोंसे निर्मित स्तम्भ, वेदी, द्वार व तोरणोंसे सहित; तथा ज्वाला (?) व अर्धचन्द्रसे विचित्र माने गये हैं। उक्त भवन मोतियोंके समूहों, सुगन्धित मालासमूहों, सुवर्णजालों और मनोहर रत्नोंसे विराजमान हैं ॥ २४६-२४९ ।। उन भवनोंके भीतर अनेक पुष्पोंसे व्याप्त एवं रत्नोंसे विचित्र भूमियोंमें स्थान स्थानपर मनोहर शय्यायें व आसन, सब ऋतुओंके फूलों युक्त वृक्षोंसे सहित निकटवर्ती उद्यान तथा कमलों व उत्पलोंसे व्याप्त वापियां एवं पुष्करिणियां हैं । स्वर्ग में वाद्यों और गन्धर्वोके गीतोंके मनोहर उत्तम शब्द, कान्ति युक्त सुन्दर रूप, सुरभि गन्ध, उत्तम स्वादवाले रस तथा शरीरको सुख देनेवाले स्पर्श हैं। इस प्रकारसे निरन्तर प्रकाशमान वह स्वर्ग सद ही अभीष्ट गुणोंसे सहित है ।। २५०-२५३ ॥ १ आ प 'मद्रुमः । २५ गंधा । ३ ५ परं सु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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