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________________ २०२] लोकविभागः [ १०.२३३ सर्वाऽल्पं च दीर्घ च त्रयस्त्रशतु सागराः । एवमायूंषि देवानां सौधर्मादिषु कल्पयेत् ॥ २३३ ।३३। सर्वार्थायुर्यदुत्कृष्टं तदेवास्मिंस्ततः पुनः । पल्यासंख्येयभागोन मिच्छन्त्येकेऽल्पजीवितम् ॥२३४ त्रास्त्रशत्प्रतीन्द्रेन्द्र सामानिकचतुष्टये । आद्ययोः कल्पयोराहुः साधिकं सागरद्वयम् ।।२३५ परतः क्रमशो वृद्धिरासर्वार्थादुदाहृता । कल्पराजाहमिन्द्राणां सव सामानिकादिषु ॥ २३६ पञ्च चत्वारि च त्रीणि अन्तः परिषदादिषु । पल्यान्यर्धद्वयं चैव सेनान्यात्माभिरक्षिणाम् ॥ २३७ । ५ । ४ । ३ । ३ । अनोकानीकपत्राणा (?) मेकपल्यं तु साधिकम् । आद्ययोः कल्पयोरेवं क्रमात्पत्योत्तरं परम् ॥ आद्ययोः साधिकं पल्यं देवीनामायुरल्पकम् । पञ्चपल्यं महत्पूर्व ऐशाने सप्तपल्यकम् ॥२३९ साधिकं सप्तपल्यं स्यात्तृतीये हस्वजीवितम् । अधिकं नवपत्यं तु देवीनां तत्र जीवितम् ॥ २४० साधिकं पूर्वमुत्कृष्टमुत्तरे ह्रस्वजीवितम् । तद् द्विपल्याधिकं भूयस्तत्रैवोत्कृष्टमुच्यते ॥ २४१ एवं यावत्सहस्रारं ततः सप्ताधिकं भवेत् । अच्युते पञ्चपञ्चाशत्पल्यानां योषितां स्थितिः ॥ २४२ है ।। २३२ ॥ सर्वार्थसिद्धि में जघन्य और उत्कृष्ट भी आयु तेतीस (३३) सागरोपम प्रमाण है । इस प्रकार सौधर्मादि कल्पोमें देवोंकी आयु जाननी चाहिये ।। २३३॥ सर्वार्थसिद्धिमें जो उत्कृष्ट आयु है पल्यके असंख्यातवें भागसे हीन वही यहां जघन्य आयु है, ऐसा कितने ही आचार्य स्वीकार करते हैं ।। २३४ ।। प्रथम दो कल्पों में त्रास्त्रिश, प्रतीन्द्र, इन्द्र और सामानिक इन चारकी आयु दो सागरोपमसे कुछ अधिक कही जाती है || २३५॥ | आगे सर्वार्थसिद्धि तक उसमें क्रमसे उत्तरोत्तर वृद्धि कही गई है । जो आयु इन्द्रों व अहमिद्रोंकी है वही सामानिकों आदिको जानना चाहिये || २३६।। अभ्यन्तर पारिषद आदि देवोंकी आयु क्रमसे पांच, चार और तीन पल्य प्रमाण है ( अ. ५ पत्य, म ४, बा. ३) । सेनामहत्तरों और आत्मरक्ष देवोंकी आयु अढाई पत्य ( ३ ) प्रमाण होती है ।। २३७ ।। प्रथम दो कल्पोंमें अनीक और अनीकपत्रोंकी ( ? ) आयु कुछ अधिक एक पल्य मात्र है। इस प्रकार प्रथम दो कल्पोमें यह उनका आयुका प्रमाण कहा गया है । आगे क्रमसे वह एक पल्यसे अधिक होता गया है ।। २३८ ।। प्रथम दो कल्पोंमें देवियोंकी जघन्य आयु पल्यसे कुछ अधिक है । उनकी उत्कृष्ट आयु सौधर्म कल्पमें पांच पल्य और ऐशान कल्प में सात पल्य प्रमाण है ।। २३९ ।। तीसरे कल्पमें उनकी जघन्य आयु कुछ अधिक सात पल्य तथा उत्कृष्ट आयु नौ पत्य प्रमाण है ।। २४० ॥ पूर्वकी जो उत्कृष्ट आयु है वही कुछ अधिक आगे जघन्य समझना चाहिये । वहींपर दो पल्यसे अधिक वह पूर्वकी आयु उत्कृष्ट कही जाती है ।। २४१ ।। इस प्रकारसे यह आयुका क्रम सहखार कल्प पर्यन्त जानना चाहिये। उसके आगे वह सात पल्यसे अधिक होती गई है । अच्युत कल्प में देवियोंकी उत्कृष्ट आयु पचपन पल्य प्रमाण है ।। २४२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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