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________________ -१०.२३२] दशमो विभागः [२०१ सेनामहत्तराणां च तथा खल्वात्मरक्षिणाम् । षछतानि त्वनीकानां द्वे शते वाहनेष्वपि ॥२२५ ।६०० । २००। जघन्यमायुः पल्यं स्यादुत्कृष्टं सागरद्वयम् । सौधर्मोत्पन्नदेवानामशाने तत्तु साधिकम् ॥२२६ ।१।२। समासहस्रद्वयेन आहारेच्छा च जायते । पक्षद्वयेन चोच्छ्वासः सागरद्वयजीविनाम् ॥२२७ ।२०००। एक वर्षसहस्रं स्यादाहारे कालनिर्णयः । उच्छ्वासस्यकपक्षश्च' एकसागरजीविनाम् ॥२२८ ।१००० । १। सागरोपमसंख्याभिर्गुणयेत् क्रमतः परम् । आहारोच्छ्वासकालानामेवं संख्यानमिष्यते ॥२२९ सप्त सानत्कुमारे स्युर्दश ब्रह्मे चतुर्दश । लान्तवे द्वयधिकाः शुक्रे शतारेऽष्टादर्शव च ॥२३० ।७।१०। १४ । १६ । १८ । विंशतिश्चानते वेद्या द्वयधिका सैव चारणे । एकैकवृद्धिः परत एकादशसु भाषिता ॥२३१ ।२० । २२ । २३ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । ३२ । ३३ । उत्कृष्टमायुर्देवानां पूर्व साधिकमल्पकम् । अनुत्तरेषु द्वात्रिंशत्त्रयस्त्रिशत्तयाधिकम् ॥२३२ ।३२ । ३३ ।। जानना चाहिये ॥ २२४ ॥ सेनामहत्तरों और आत्मरक्ष देवोंके छह सौ (६००) तथा अनीकों और वाहन देवोंके दो सौ (२००) देवियां होती हैं ।।२२५ ।। सौधर्म कल्पमें उत्पन्न हुए देवोंकी जघन्य आयु एक (१) पल्य और उत्कृष्ट दो (२) सागर प्रमाण होती है। ऐशान कल्पमें उत्पन्न हुए देवोंकी वह आयु इससे कुछ अधिक होती है ॥ २२६ ॥ जिन देवोंकी आयु दो सागर प्रमाण होती है उनको दो हजार ( २०००) वर्षों में भोजनकी इच्छा होती है तथा दो पक्षोंमें उच्छ्वास होता है ।। २२७ ।। जिन देवोंकी आयु एक (१) सागर प्रमाण है उनके आहार कालका प्रमाण एक हजार (१०००) वर्ष तथा उच्छ्वासकालका प्रमाण एक पक्ष (१५ दिन) निश्चित है ।।२२८॥ आगे इस आहारकाल और उच्छ्वासकालको क्रमसे सागरोपमोंकी संख्यासे गुणित करना चाहिये । इस प्रकारसे आगेके कल्पोंमें उक्त काल जाना जाता है । जैसे- सनत्कुमार कल्पमें आयुका प्रमाण चूंकि सात सागर है, इसलिये वहां आहारकालका प्रमाण सात हजार वर्ष और उच्छ्वासकालका प्रमाण सात पक्ष समझना चाहिये ।। २२९ ।। देवोंकी उत्कृष्ट आयुका प्रमाण सनत्कुमार कल्पमें सात (७) सागरोपम, ब्रह्म कल्पमें दस (१०), लान्तवमें चौदह (१४), शुक्रमें दोसे अधिक चौदह (१६), शतारमें अठारह (१८), आनतमें बीस (२०) तथा आरणमें दो अधिक बीस (२२) सागरोपम जानना चाहिये । इसके आगे नौ ग्रैवेयक, अनुदिश और अनुत्तर इन ग्यारह स्थानोंमें उपर्युक्त आयुप्रमाण (२२ सा.) में उत्तरोत्तर एक एक सागरकी वृद्धि कही गई है ।। २३०-२३१॥ जैसे- प्रथम ग्रैवेयक २३ द्वि ग्रे. २४, तृ. ग्रे. २५ च. ग्रे. २६ पं. ग्रे. २७ ष. ग्रे. २८ स. ३. २९ अ. ३. ३० न. ग्रे. ३१ नो अनुदिश ३२ और पांच अनुत्तर ३३ सागरोपम । पूर्व देवोंकी उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक होकर आगेके देवोंकी जघन्य आयु मानी गई है। अनुत्तरोंमें जघन्य आयु बत्तीस (३२) सागरोपम तथा उत्कृष्ट तेतीस (३३)सागरोपम प्रमाण १ ा प उच्छ्वासश्चक । २ प साधिकपल्यकम् । ३ आ प द्वात्रिंशत्रय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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