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________________ -१०.१५३] दशमो विभागः [१९१ देवीप्रासावमानस्तु मता वल्लभिकालयाः । योजनानां तु विशत्या उच्छ्याः केवलाधिकाः ॥१४८ ।२०। उत्तरेऽत्राच्युतेन्द्रश्च आरणेन समो मतः । वल्लभा जिनदासीति देवी सर्वाङ्गनोत्तमा ॥१४९ उक्तं च [त्रिलोकसार ५०८]सत्तपदे देवीणं गिहोदयं पणसयं तु पण्णरिणं । सम्वगिहदीहवासं उदयस्स य पंचमं दसमं ॥७ ।१०० १५०। सामानिकसहस्राणि अशीतिश्चतुरूत्तरा। अशीतिरेवेशानस्य तृतीयस्य द्विसप्ततिः ॥१५० । ८४०००। ८००००। ७२०००। सप्ततिः स्युर्महेन्द्रस्य षष्टिश्च परयोर्द्वयोः । पञ्चाशत्परयोश्चापि चत्वारिंशततो द्वयोः ॥१५१ ।७००००। ६०००० । ५००००। ४००००। त्रिशदेव सहस्राणि शतारस्योत्तरस्य च । विशतिश्चानतेन्द्रस्य तावन्त्यश्चारणस्य च ॥१५२ ।३००००। २००००। २००००। त्रास्त्रिशास्त्रयस्त्रिशदेककस्य तु भाषिताः । पुत्रस्थाने च ते तेषामिन्द्राणां प्रवराः सुराः ॥१५३ दूने (४०) विस्तृत और दो सौ(२००)योजन ऊंचे कहे गये हैं।।१४७॥ वल्लभा देवियोंके प्रासाद प्रमाणमें देवियोंके प्रासादोंके समान हैं । वे केवल बीस (२०) योजनसे अधिक ऊंचे हैं।।१४८॥ अच्युत इन्द्रकके उत्तर में स्थित छठे श्रेणीबद्ध विमानमें अच्युत इन्द्र रहता है जो आरण इन्द्रके समान माना गया है। उसकी जो जिनदासो नामकी वल्लभा देवी है वह सब देवियों में श्रेष्ठ है ।। १४९ ।। कहा भी है - ___ सौधर्मयुगल आदि छह युगल तथा शेष आनतादि, इस प्रकार इन सात स्थानों में देवियों के प्रासादोंकी ऊंचाई आदिमें पांच सौ(५००) योजन और आगे वह क्रमसे पचास योजनसे कम होती गई है । सब प्रासादोंकी लंबाई ऊंचाईके पांचवें भाग (१००) और विस्तार उसके दसवें भाग (५०) प्रमाण है ।। ७।। सामानिक देवोंकी संख्या सौधर्म इन्द्रको चौरासी हजार (८४०००), ईशान इन्द्रके अस्सी हजार (८००००), तृतीय सनत्कुमार इन्द्रके बहत्तर हजार (७२०००), महेन्द्र इन्द्रके सत्तर हजार (७००००), आगेके दो इन्द्रों (ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर) के साठ हजार (६००००), इसके आगे दो इन्द्रोंके पचास हजार (५००००), इसके आगे दो इन्द्रोंके चालीस हजार (४००००), शतार और सहस्रार इन्द्रके तीस हजार (३००००), आनतेन्द्रके बीस हजार (२०००० ) और इतनी (२००००) ही आरण इन्द्रके सामानिक देवोंकी संख्या है ॥१५०.५२।। त्रास्त्रिश देव प्रत्येक इन्द्रके तेतीस (३३) कहे गये हैं । वे श्रेष्ठ देव इन्द्रोंके पुत्रोंके स्थानमें अर्थात् पुत्रोंके समान होते हैं ।। १५३ ॥ १व केवलादिकाः । २ प पण्णरियं । ३ व त्ततोर्ध्वयोः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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